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DELHI. सतर के दशक में जब ग्रीनलैंड पूरी तरह से डेनमार्क के अधीन था। तब वहां की करीब 4500 मूल निवासी महिलाओं का जबरन गर्भ निरोध कराया गया था। पीड़ित महिलाएं आज भी उनके साथ हुए अत्याचार के सदमे में जी रही हैं। कई महिलाओं का दावा है कि साल 1960 से 1970 के बीच डेनमार्क की ओर से बर्थ कंट्रोल के लिए एक आईयूडी डिवाइस कॉइल को उनके यूट्रस में जबरन डाला गया था, जिस वजह से उनकी पूरी जिंदगी ही बर्बाद हो गई।
पता भी नहीं था कि यह क्या है
ग्रीनलैंड के एक टाउन में रहने वाली नाजा इस बारे में कहती हैं कि उन्हें उस समय बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि यह क्या है और ना ही उन्हें समझाया गया और ना ही उनकी अनुमति ही ली गई। नाजा ने आगे कहा कि वह काफी डरी हुई थीं, इसी वजह से उन्होंने अपने परिजनों से भी कुछ नहीं बताया। नाजा ने कहा कि जिस समय वह IUD कॉइल लगाई गई, उस समय वे वर्जिन थीं और यहां तक कि कभी एक लड़के को किस तक नहीं किया था।
नाजा ने उस समय के बारे में बात करते हुए कहा कि मुझे याद है कि सफेद कोट पहने सभी डॉक्टर्स थे और शायद एक नर्स भी वहां मौजूद थीं। जिस समय IUD को मेरे शरीर के अंदर डाला जा रहा था, मैं काफी डरी हुई थी। नाजा ने आगे बताया कि उन्हें लग रहा था कि जैसे चाकुओं को उनके शरीर में डाला जा रहा हो।
माता-पिता को बताया भी नहीं गया
मोर्टेंसन 1974 में 15 साल की उम्र में पहली बार अपने परिवार और अपने गांव को छोड़कर डेनमार्क आई थीं। ग्रीनलैंड के पश्चिमी छोर पर बसे इउलिसात नाम के उनके गांव में उच्च विद्यालय नहीं था। डेनमार्क में आगे की पढ़ाई करना उनके लिए एक मौका था। वो बताती हैं कि मैं एक बोर्डिंग स्कूल गई और वहां हेडमिस्ट्रेस ने मुझसे कहा- तुम्हें आईयूडी लेना होगा। उनके मना करने पर हेडमिस्ट्रेस ने कहा- जी हां, आईयूडी तो तुम्हें लगेगा ही, चाहे तुम हां कहो या ना।
हजारों मील दूर रह रहे उनके माता-पिता की सहमति लेना तो दूर उन्हें कभी इस बारे में बताया भी नहीं गया। बस एक दिन मोर्टेंसन ने खुद को एक डॉक्टर के क्लिनिक के सामने पाया, जहां उनके गर्भाशय में एक गर्भ निरोधक उपकरण डाल दिया गया।
उन्होंने एएफपी को बताया कि वो ऐसी महिलाओं के लिए आईयूडी था, जो पहले ही बच्चों को जन्म दे चुकी थीं, ना कि मेरी उम्र की युवा लड़कियों के लिए। उनके इस "निरादर" के बाद वो खामोश हो गईं। उन्हें इस बात की भनक भी नहीं थी पश्चिमी डेनमार्क के जटलैंड में उनके रिहायशी स्कूल में इस यातना से गुजरने वाली वो अकेली लड़की नहीं थी।
हर्जाने की मांग
लाईबर्थ ने बताया कि अमूमन उसे गर्भपात के दौरान डाल दिया जाता था और महिलाओं को उसके बारे में बताया भी नहीं जाता था। इतिहासकार सोरेन रुड कहती हैं कि 1960 के दशक में लागू किया गया, यह अभियान एक पुरानी औपनिवेशिक मानसिकता का हिस्सा था को 1953 में आधिकारिक राजनीतिक स्वतंत्रता मिल जाने के बाद भी जारी रही।