2024 का अंत होते- होते, AI चर्चा का मुद्दा नहीं बचा है। AI, छोटे- बड़े सभी न्यूज रूम में रुटीन काम का हिस्सा बन चुकी है। अगर कोई न्यूज रूम अपने वर्जिन होने का दावा कर रहा है, तो वह भुलावे में है। थोड़ा अपने जूनियर के काम पर पैनी नजर डालिए, वह आपकी सोच से कहीं आगे पहले ही शुरुआत कर चुका है।
खबरों को तेज गति से री- राइट करना, फेक न्यूज की पहचान या फिर प्रूफ मिस्टेक जैसे लगभग सभी कामों पर नए पत्रकारों की निर्भरता AI पर हो चुकी है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी के उपयोग का सीधा असर काम के समय में क्रांतिकारी बचत और तेजी से खबरों के पब्लिश होने के रूप में देखा जा रहा है। यानी संस्थागत तौर पर इसे प्रोडक्शन बढ़ने से देखा जा रहा है, लेकिन फेक्ट यह है कि नई टेक्नॉलॉजी को अपनाने का बेहद शुरुआती समय है। फिलहाल उसे सीखने और समझने में ही ज्यादा वक्त जाया हो रहा है। न्यूज रूम में सबसे बड़ी चिंता यह है कि जल्दबाजी के चक्कर में कहीं खबर में तथ्यों का कबाड़ा न हो जाए।
भाषाई पत्रकारों, खासतौर पर हिंदी पट्टी को यह मानना ही होगा कि तमाम चिंताओं के बावजूद इस hulk से बचा नहीं जा सकता। याद कीजिए 2000 की शुरुआत के उन वरिष्ठ पत्रकारों को, जो वास्तव में बेहतर थे। ज्ञानी थे, और अपने आप में एनसाइक्लोपीडिया थे, मगर कंप्यूटर को नहीं अपना सके। धीरे- धीरे वे डायनासौर की तरह समय से पहले ही गायब हो गए। हालांकि उनको मीडिया फील्ड से पूरी तरह हटने में लगभग 10 साल का समय लगा। उसके बाद भी कई सीनियर जर्नलिस्ट टिके रहे, अपने काम और नॉलेज की दम पर… मगर AI दस साल का इंतजार नहीं करेगा, 2025 ही एक साल है, जिसमें नए और पुराने पत्रकारों के लिए जर्नलिज्म में अपना भविष्य तय करना है। यकीन मानिए सबसे बड़ा संकट डेस्क आधारित जर्नलिज्म पर आने वाला है।
नए साल की शुरुआत में निश्चित तौर पर सकारात्मक और उम्मीद जगाती बातों पर चर्चा होना चाहिए, मगर क्या सच से मुंह मोड़ा जा सकता है? 2009 की शुरुआत में जब दैनिक भास्कर ने पहली बार डिजिटल जर्नलिज्म के महत्व को समझा, तब इस माध्यम को ज्यादातर पत्रकारों ने दोयम दर्जे का मानकर प्रिंट में ही रहना पसंद किया। आगे के कई सालों तक यह रवैया पूरी हिंदी पट्टी में रहा और आज देखिए, हर दूसरे पत्रकार की अपनी वेबसाइट है। डिजिटल की दुनिया में अपना अस्तित्व तलाश रहा है।
कागज पर खबर लिखने और उसके डॉट कॉम पर खबरें लिखने के बाद 25 साल में यह तीसरा मौका है, जब टेक्नॉलाजी के मामले में हिंदी का जर्नलिस्ट गच्चा खाने के लिए तैयार बैठा है। जैसे मानकर ही बैठा है- ये मुझसे न हो पाएगा। वह मानने को तैयार ही नहीं है कि जैसे ही इस नई टेक्नॉलाजी से नए बच्चे यूज्ड टू हो जाएंगे, वैसे ही आपका दौर खत्म… कॉपी एडिटर, ग्राफिक डिजाइनर, हैडिंग मास्टर, वीओ एक्सपर्ट के कैरियर की उम्र अब ज्यादा नहीं है। डिजिटल न्यूज रूम में डॉन की तरह उभरा SEO भी अब अपने अंतिम दौर में है। समझदार न्यूज रूम ने इसकी जिम्मेदारी पहले ही AI को दे दी है और काम सफलतापूर्वक हो भी रहा है।
तो उम्मीद कहां है, या सबकुछ मशीन ही करेगी तो रिपोर्टर क्या करेगा? बिल्कुल रिपोर्टर ही करेगा। ओरिजनल और फील्ड रिपोर्टिंग का कंटेंट ही टिकेगा, जिसकी कोई काट AI के पास नहीं है। दरअसल AI जो भी कर रहा है, वह उसके पास उपलब्ध हजारों सूचनाओं के आधार पर कर रहा है। उसकी ताकत यह है कि वह उपलब्ध सूचनाओं को अब कई तरह से प्रोसेस करके बेहद तेज गति से उपलब्ध करवा सकता है, मगर नई सूचना जनरेट नहीं कर सकता। कॉपी में भावना नहीं डाल सकता। और यही कमियां पत्रकारिता को बचाए रखेंगी। तो पत्रकारों, विशेषकर हिंदी वाले पत्रकारों को 2025 में नई टेक्नॉलाजी, पाठकों और दर्शकों की बदलती प्राथमिकताओं और विश्वास की चुनौतियों के साथ तालमेल बिठाना होगा। ऐसे में, गुणवत्तापूर्ण, प्रामाणिक और ओरिजनल सामग्री ही पाठकों को जोड़े रखने का मूलमंत्र होगी।
तो कहिए, AI शरणम् गच्छामि…
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