वो गोबर से लिपे आंगन, पकवानों की सुगंध और मेल-मेलाप... सब भूल गए हम

पुराने समय की दिवाली और आज की दिवाली, दोनों में जो अंतर है, वह हमें हमारे अतीत की मिठास और नए जमाने की सुविधाओं के बीच झूलता महसूस कराता है। आईए, आज हम आपको आपको बताते हैं वो वाली दिवाली और ये वाली दिवाली...

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Ravi Singh
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Bhopal : दिवाली ऐसा त्योहार है, जिसका हर कोई सालभर इंतजार करता है। यह केवल एक पर्व नहीं, बल्कि ऐसा अहसास है, जिसमें रिश्तों की मिठास, खुशियों की रौनक और अपनत्व का अलग रंग होता है। बदलते वक्त के साथ दिवाली के जश्न का तरीका भी बदला है, लेकिन इसकी भावना, इसकी रौनक आज भी वैसी ही है। पुराने समय की दिवाली और आज की दिवाली, दोनों में जो अंतर है, वह हमें हमारे अतीत की मिठास और नए जमाने की सुविधाओं के बीच झूलता महसूस कराता है। आईए, आज हम आपको आपको बताते हैं वो वाली दिवाली और ये वाली दिवाली...

रेडिमेड की रौनक, पर सिलवाने की सजीवता

पहले दिवाली पर नए कपड़ों का इंतजार महीनों चलता था। सिलवाने के लिए दर्जी के पास भेजे गए कपड़े वापस घर आएं, इसकी बेसब्री का अलग ही मजा था। घर में बच्चों की खुशी, नए कपड़ों का अहसास- ये सब दिवाली की तैयारियों का हिस्सा थे। आज रेडिमेड कपड़ों का जमाना है, बस ट्राइ करो और खरीद लो। अब ऑनलाइन शॉपिंग, फेस्टिव डिस्काउंट और स्पेशल ऑफर्स का वेट करना नई दिवाली का हिस्सा है। सुविधाएं हैं, पर सिलवाने की जो अपनत्व भरी प्रतीक्षा थी, वह कहीं खो सी गई है।

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सफाई की धूल, जो अब ऐप्स ने बदल दी

पहले दिवाली का मतलब घर की सफाई का महोत्सव। महीना भर पहले सफाई शुरू होती थी, दीवारें पुताई जाती थीं और घर का हर कोना चमकता था। पूरा परिवार जुटता और हर कोई अपना-अपना कोना सहेजता। बार—बार चाय की चुस्कियां, एक दूसरे की टांग खिंचाई और ढेर सारा प्यार होता था। आज, बस ऐप पर क्लिक करो और सफाई कर्मचारी हाजिर। घर नए जैसा तो दिखता है, पर उस धूल के पीछे जो मेहनत, अपनापन और उत्साह था, वह कहीं पीछे छूट गया है।

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पकवानों की सुगंध से अब स्पेशल पैकेट्स का सहारा

दिवाली के दिनों में रसोई से आने वाली मिठास की सुगंध गली-मोहल्लों तक जाती थी। पकवानों का लेन—देन और अपनेपन की थाली में सजाए जाने वाले व्यंजनों की जगह​ गिफ्ट पैकेट्स ने ले ली है। पकवान बाजार से आते हैं, रिश्तों में मिठास अब थालियों की जगह डिब्बों में सिमट गई है। अपनत्व का वो सुखद एहसास अब कम हो गया है, पर आधुनिकता की सुविधा ने त्योहारों को सरल भी बना दिया है।

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अब फोटो लाइक्स से तय होती खुशियां

पहले दिवाली की शाम को दीप जलाकर मिलने-जुलने का जो रिवाज था, अब वह सोशल मीडिया पर पोस्ट करने और लाइक्स पाने तक सीमित रह गया है। हाथों से दीप जलाने का उत्साह अब हाथों में मोबाइल पकड़े तस्वीरें लेने में बदल गया है। आज के युवा आतिशबाजी से बचते हैं, पर्यावरण का भी ख्याल रखता हैं, जो सराहनीय है। दीपक की जगह अब डेकोरेटिव लाइट्स ने ले ली है और मिलने की जगह फोटो शेयरिंग ने। बदलाव जरूरी है, पर पुराने तरीके का अपनापन आज भी याद आता है।

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संयुक्त परिवार का उल्लास, कॉलोनियों के आयोजनों में सिमटा

पहले दिवाली का मतलब था दादा-दादी या नाना-नानी के घर जाना, पूरा परिवार का एक साथ मिलकर त्योहार मनाना। संयुक्त परिवार के बीच त्योहार का जो उल्लास होता था, वो अब कॉलोनियों के सामूहिक आयोजनों में बदल गया है। वहां भी खुशी है, पर वह बचपन की मस्ती और रतजगा अब कम दिखता है।

गोबर से लिपे आंगन पर रंगोली का आनंद

गांवों में गोबर से लिपे आंगन में बनाई गई रंगोली की खूबसूरती, उसकी सुगंध और अपनापन आज भी स्मृतियों में बसता है। अब शहरीकरण और आधुनिकता ने वह अंदाज बदल दिया है। रंगोली आज भी बनती है, पर इटालियन मार्बल की चिकने फर्शों पर। वहीं, गांवों में भी अब आधुनिकता ने अपनी जगह बना ली है। उन पुराने आंगनों की जगह आज के चमचमाते फर्श ने ले ली है और रिश्तों की वह गर्माहट कहीं खो गई है।

वह एक दिया पड़ोसी के घर रखने का रिवाज

पहले दिवाली की रात एक दिया पड़ोसी के दरवाजे पर रखना परंपरा थी। इससे पड़ोसियों के रिश्तों में भी गर्माहट बनी रहती थी। आज शायद ही कोई ऐसा रिवाज निभाता हो। अब हर कोई अपने घर में सीमित हो गया है। रिश्तों का वह खास कनेक्शन कहीं गुम हो गया। दीये की वह रोशनी जो कभी हर दरवाजे तक पहुंचती थी, अब महज एक याद बन गई है।

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