विजयादशमी पर सिंदूर खेला क्यों है खास, जानें 400 साल पुरानी इस रस्म का महत्व और मां की विदाई की अनूठी परंपरा

दुर्गा पूजा 2025 की दशमी तिथि को निभाई जाने वाली सिंदूर खेला की रस्म विवाहित महिलाओं के अखंड सौभाग्य और मां दुर्गा की विदाई का प्रतीक है। यह सदियों पुराना बंगाली रिवाज है।

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Kaushiki
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Navratri Sindoor Khela
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Navratri Sindoor Khela: दुर्गा पूजा भारत के पूर्वी राज्यों विशेषकर पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, त्रिपुरा, झारखंड के साथ-साथ बांग्लादेश में एक महापर्व के रूप में मनाया जाता है।

यहां नवरात्र में षष्ठी से लेकर विजयादशमी तक चलने वाला यह उत्सव, सिर्फ पूजा-अर्चना नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक आयोजन होता है।

बंगाली समुदाय के लोग मां दुर्गा की पूजा के दौरान कई तरह की अनूठी रस्में और परंपराएं निभाते हैं और इन्हीं में सबसे रंगीन और भावनात्मक रस्म है सिंदूर खेला।

आज, 2 अक्टूबर को विजयादशमी के पावन अवसर पर आइए जानते हैं दुर्गा पूजा की सबसे रंगीन और भावुक परंपरा सिंदूर खेला का विशेष महत्व। 

Durga Puja 2025: दुर्गा पूजा पर क्यों निभाई जाती है सिंदूर खेला की रस्म?  जानें सदियों पुराने इस रिवाज का महत्व - sindur khela 2025 date history  rituals & significance of durga

सिंदूर खेला का इतिहास

सिंदूर खेला दुर्गा पूजा के अंतिम दिन यानी विजयादशमी को निभाई जाने वाली एक सदियों पुरानी, अत्यंत महत्वपूर्ण और भावनात्मक रस्म है।

इस परंपरा में, विवाहित हिंदू महिलाएं मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करती हैं और फिर उस सिंदूर से आपस में एक-दूसरे के साथ "खेलती" हैं यानी एक-दूसरे के चेहरे, गालों और मांग में सिंदूर लगाती हैं।

यह रस्म विजयदशमी के दिन, मां दुर्गा की प्रतिमा विसर्जन के ठीक पहले निभाई जाती है। यह उत्सव का चरम होता है, जो रंग, उल्लास और गहरी आस्था से भरा होता है।

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400 साल पुरानी परंपरा

ऐतिहासिक मान्यताएं बताती हैं कि सिंदूर खेला की परंपरा लगभग 400 से 450 साल पुरानी है। इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों के जमींदारों की दुर्गा पूजा से हुई थी।

उस समय, यह रस्म विवाहित महिलाओं के लिए देवी से आशीर्वाद मांगने और अपने पति की लंबी उम्र तथा सुखी दांपत्य जीवन की कामना करने का एक तरीका था।

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समय के साथ, यह परंपरा केवल जमींदारों के घर तक सीमित नहीं रही बल्कि यह बंगाल के हर कोने में फैल गई। आज यह दुर्गा पूजा उत्सव का एक अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा बन गई है, जो भारत के अन्य हिस्सों में भी मनाई जाती है, जहां-जहां बंगाली समुदाय निवास करता है।

यह रिवाज दर्शाता है कि कैसे पुरानी परंपराएं समय के साथ विकसित होती हैं और एक बड़ी सांस्कृतिक पहचान बन जाती हैं। यह परंपरा दशमी तिथि यानी जिस दिन मूर्ति विसर्जन किया जाता है, उससे ठीक पहले निभाई जाती है।

इस दौरान विवाहित महिलाएं मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करती हैं और फिर उस सिंदूर से एक-दूसरे के साथ खेलती हैं और अपने अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं।

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कैसे मनाई जाती है सिंदूर खेला की रस्म

विजयादशमी की सुबह जब मां दुर्गा को विदाई देने की तैयारी होती है, ठीक उससे पहले सिंदूर खेला का उत्सव शुरू होता है। यह रस्म सौंदर्य, भक्ति और उल्लास से भरपूर होती है:

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देवी को सिंदूर और चूड़ियां अर्पित करना

बंगाली समुदाय में यह माना जाता है कि नवरात्र के नौ दिन मां दुर्गा अपने मायके आई होती हैं। दशमी तिथि पर वह मायका छोड़कर वापस ससुराल जाती हैं।

इसलिए, उन्हें एक बेटी की तरह विदाई दी जाती है। विदाई से पहले, विवाहित महिलाएं सबसे पहले मां दुर्गा के माथे और चरणों में सिंदूर अर्पित करती हैं। इसके बाद, उन्हें सुहाग के प्रतीक के रूप में शाखा और पोला जैसी चूड़ियां पहनाई जाती हैं और मिठाई चढ़ाई जाती है।

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पान के पत्ते से आंसू पोंछने की रस्म

देवी को विदाई देने से पहले एक अनूठी रस्म निभाई जाती है, जिसे मां के चेहरे से आंसू पोंछने के रूप में देखा जाता है। भक्त पान का पत्ता अपनी हथेलियों में लेकर उसे देवी की प्रतिमा के चेहरे से लगाते हैं।

यह प्रतीकात्मक क्रिया यह दर्शाती है कि मायके से विदा होने वाली बेटी के दुःख को कम किया जा रहा है और उसे अगले वर्ष जल्दी वापस आने का आग्रह किया जा रहा है।

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महिलाओं का आपस में सिंदूर लगाना

विजयादशमी पर सिंदूर खेला देवी को सिंदूर चढ़ाने के बाद, विवाहित महिलाएं एक-दूसरे के साथ सिंदूर से खेलती हैं। वे एक-दूसरे के माथे, गालों और मांग में सिंदूर लगाती हैं।

यह सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि सौभाग्य और खुशहाली की शुभकामनाएं देने का एक तरीका है। वे एक-दूसरे को मिठाई खिलाकर अपने सुखी वैवाहिक जीवन के लिए आशीर्वाद मांगती हैं। यह दृश्य ढोल और ढाक की थाप पर और भी जीवंत हो उठता है।

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केवल रस्म नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का प्रतीक

सिंदूर खेला की रस्म का महत्व सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह बंगाली संस्कृति में सामाजिक एकता और सामुदायिक भागीदारी का भी एक मजबूत प्रतीक है।

बेटी को सुहाग भेंट 

विदाई से पहले, विवाहित महिलाएं मां दुर्गा को अपनी बेटी मानकर, उनके माथे पर सिंदूर लगाती हैं। साथ ही, उन्हें सुहाग के प्रतीक जैसे शाखा और पोला पहनाती हैं।

विजयादशमी पर सिंदूर खेला एक बेटी को विदाई देते समय उसे सौभाग्य का सामान देने जैसा है। भक्त पान का पत्ता लेकर मां के चेहरे से सिंदूर को धीरे से सहलाते हैं। यह प्रतीकात्मक रूप से मां के आंसू पोंछना माना जाता है और भक्त उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे अगले साल जल्दी लौटकर आएं।

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अखंड सौभाग्य और दांपत्य सुख की कामना

नवरात्रि दुर्गा पूजा में मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करने के बाद, यह रस्म महिलाओं के सौभाग्य और सामाजिक बंधन को मजबूत करती है। महिलाएं उसी सिंदूर से आपस में एक-दूसरे के चेहरे और मांग में सिंदूर लगाती हैं।

सिंदूर उनके वैवाहिक जीवन का सर्वोच्च प्रतीक है। एक-दूसरे को सिंदूर लगाने का मतलब है, सामूहिक रूप से मां दुर्गा से यह आशीर्वाद मांगना कि वे सभी के पति की लंबी उम्र सुनिश्चित करें और उनके दांपत्य जीवन में खुशहाली बनाए रखें।

विजयादशमी पर सिंदूर खेला रस्म सभी विवाहित महिलाओं को जाति या वर्ग की परवाह किए बिना एक ही मंच पर लाती है। सिंदूर लगाने और मिठाई खिलाने के द्वारा, वे सामाजिक एकता और सद्भाव का प्रदर्शन करती हैं, जिससे यह पर्व और भी अधिक समावेशी और आनंदमय हो जाता है।

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