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पूरी खबर को 5 पॉइंट में समझें-
मद्रास हाईकोर्ट ने 16 साल से कम उम्र वालों के लिए सोशल मीडिया बैन का सुझाव दिया।
अदालत ने कहा कि इंटरनेट पर अश्लील कंटेंट बच्चों के लिए बेहद असुरक्षित है।
केंद्र सरकार को ऑस्ट्रेलिया के ऑनलाइन सेफ्टी मॉडल को फॉलो करने की सलाह दी गई।
इंटरनेट कंपनियों को पैरेंटल कंट्रोल की सुविधा देना अनिवार्य करने को कहा।
बाल अधिकार आयोग (NCPCR) को जागरूकता के लिए नया एक्शन प्लान बनाने का निर्देश।
क्या भारत में अब बच्चे नहीं चला पाएंगे सोशल मीडिया?
आजकल के दौर में बच्चों के हाथों में खिलौनों से ज्यादा मोबाइल फोन नजर आते हैं। सोशल मीडिया की इस दुनिया के पीछे कई खतरे भी छिपे हुए हैं। इन्हीं खतरों को देखते हुए हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने केंद्र सरकार को एक खास सुझाव दिया है।
कोर्ट ने कहा कि भारत को भी ऑस्ट्रेलिया की तरह कड़े नियम बनाने चाहिए। 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पूरी तरह बंद होना चाहिए।
शुक्रवार, 26 दिसंबर को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने यह बात कही। इस याचिका में बच्चों को आसानी से मिलने वाले अश्लील कंटेंट पर चिंता जताई गई थी। वकील केपीएस पलानीवेल राजन ने कोर्ट को ऑस्ट्रेलिया के नए कानून के बारे में बताया। इसके बाद कोर्ट ने सरकार से इस दिशा में गंभीरता से सोचने को कहा है।
ऑस्ट्रेलिया का मॉडल क्या है ?
ऑस्ट्रेलिया दुनिया का पहला ऐसा देश बना है जिसने बच्चों की सुरक्षा के लिए बड़ा कदम उठाया है। वहां की सरकार ने ऑनलाइन सेफ्टी अमेंडमेंट बिल पास करके एक मिसाल पेश की है।
ऑस्ट्रेलिया में लागू नियम के मुख्य बिंदु-
16 साल से कम उम्र के बच्चे वहां फेसबुक या इंस्टाग्राम नहीं चला पाएंगे।
टिकटॉक, स्नैपचैट और YouTube जैसे प्लेटफॉर्म पर भी पाबंदी लगा दी गई है।
कंपनियों को आदेश है कि वे उम्र की जांच के लिए सख्त सिस्टम बनाएं।
नियम न मानने वाली सोशल मीडिया कंपनियों पर भारी जुर्माना लगाया जाएगा।
भारत में भी अब इसी तरह के कानून बनाने की मांग उठने लगी है। हाईकोर्ट का मानना है कि बच्चों को मानसिक बीमारियों और साइबर बुलिंग से बचाना जरूरी है। जब तक बच्चे खुद सही-गलत का फैसला नहीं ले पाते, तब तक उन्हें रोकना होगा।
इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स
कोर्ट ने सिर्फ सरकार को ही नहीं, बल्कि इंटरनेट देने वाली कंपनियों को भी सलाह दी है। कोर्ट ने कहा कि इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स को और ज्यादा सख्त होना होगा। उन्हें हर हाल में पैरेंटल कंट्रोल की सुविधा ग्राहकों को देनी चाहिए।
पैरेंटल कंट्रोल एक ऐसा सिस्टम है जिससे माता-पिता यह देख सकते हैं कि बच्चा क्या देख रहा है। वे आपत्तिजनक वेबसाइट्स या ऐप्स को ब्लॉक भी कर सकते हैं। कोर्ट ने साफ कहा कि कंपनियों को इसे अनिवार्य बनाना चाहिए। इससे माता-पिता अपने बच्चों की ऑनलाइन एक्टिविटी को आसानी से फिल्टर कर पाएंगे।
सोशल मीडिया क्यों बन रहा है खतरा?
सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का साधन नहीं रह गया है, यह एक जाल बन चुका है। असर (ASER) 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 10 से 15 साल के 96% बच्चे सोशल मीडिया पर हैं। यह आंकड़ा डराने वाला है क्योंकि इतने छोटे बच्चे खतरों को नहीं समझते।
चिंता की तीन बड़ी वजहें-
बच्चों को बिना किसी फिल्टर के ऐसी चीजें दिखती हैं जो उनके दिमाग पर बुरा असर डालती हैं।
लगातार रील देखने और लाइक्स की होड़ से बच्चों में तनाव और चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है।
अनजान लोगों से बात करना और अपनी जानकारी साझा करना बच्चों को मुसीबत में डाल सकता है।
हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक कोई नया कानून नहीं आता, तब तक जागरूकता फैलाना जरूरी है। स्कूलों और मीडिया के जरिए माता-पिता को सुरक्षित इंटरनेट के बारे में सिखाना चाहिए।
सोशल मीडिया को लेकर क्या कानून बनेगा?
फिलहाल यह केवल मद्रास हाईकोर्ट का एक सुझाव है, अंतिम फैसला केंद्र सरकार को लेना है। भारत में मेटा जैसी कंपनियां कहती हैं कि 16 साल से कम उम्र के बच्चों के अकाउंट प्राइवेट होते हैं। वहीं, हकीकत में बच्चे अपनी गलत उम्र बताकर अकाउंट बना लेते हैं।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जागरूकता अभियान अब केवल कागजों पर नहीं, जमीन पर दिखने चाहिए। बच्चों को यह समझाना होगा कि इंटरनेट एक हथियार की तरह है। इसका इस्तेमाल संभलकर करना चाहिए। सरकार यदि ऑस्ट्रेलिया की तरह कदम उठाती है, तो यह देश के भविष्य के लिए बड़ फैसला होगा।
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