विश्लेषण: बीजेपी के लिए बहुत कठिन है महाराष्ट्र की डगर, फूंक-फूंककर कदम रखने की जरूरत

देश-दुनिया। महाराष्ट्र देश का इकलौता ऐसा राज्य है, जहां पिछले पांच वर्षों में सबसे ज्यादा राजनीतिक प्रयोग हुए हैं। यहीं बीजेपी, शिवसेना का गठबंधन टूटा। फिर अचानक सुबह 5 बजे शपथ ग्रहण समारोह हुआ। फिर 24 घंटे में सरकार गिर गई...

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Jitendra Shrivastava
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संदीप सोनवलकर 
वरिष्ठ पत्रकार 


कई बार महाराष्ट्र ( Maharashtra ) के लोग कहते हैं कि महाराष्ट्र से राष्ट्र चलता है। इस बार के विधानसभा चुनाव सही मायनों में ऐसे ही साबित होंगे, क्योंकि ये लोकसभा में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के बाद होने वाले पहले चुनाव हैं। इन चुनावों में तय होगा कि 'किसके घर दिया जलेगा या कहां अंधियारा होगा।' बहरहाल यहां बीजेपी की साख दांव पर है, क्योंकि यही इकलौता राज्य है, जहां से बीजेपी का उदय 1980 में पहली बार हुआ और उसी समय से उसकी सहयोगी रही बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना को अब बीजेपी ने छोड़ दिया है। 

सबसे ज्यादा राजनीतिक प्रयोग वाला राज्य 

महाराष्ट्र, देश का इकलौता ऐसा राज्य है, जहां पिछले पांच वर्षों में सबसे ज्यादा राजनीतिक प्रयोग हुए हैं। यहीं बीजेपी, शिवसेना का गठबंधन टूटा। फिर अचानक सुबह 5 बजे शपथ ग्रहण समारोह हुआ। फिर 24 घंटे में सरकार गिर गई। कुछ दिन में एनसीपी कांग्रेस और उद्धव ठाकरे की शिवसेना की सरकार बनी। दो साल बाद शिवसेना में सबसे बड़ी टूट हुई और एक नई शिवसेना बनी, जिसे धनुष बाण का चुनाव चिह्न भी मिल गया। वहीं शरद पवार की एनसीपी भी टूटी और भतीजे अजित पवार को भी चाचा का चुनाव चिह्न घड़ी मिल गया, लेकिन पहले टेस्ट यानी लोकसभा चुनाव ने सबसे बड़ा संदेश यही दिया कि लोगों को ये तोड़फोड़ की राजनीति पसंद नहीं आई। लिहाजा, लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में बीजेपी के सांसदों की संख्या 21 से घटकर 9 पर आ गई। वहीं, जिस कांग्रेस का केवल एक लोकसभा सदस्य था, वह 14 हो गए। लोकसभा के परिणामों ने बीजेपी को हिला दिया है। अब बीजेपी को तय करना है कि वो कैसे वापसी करेगी, सत्ता में भी और लोगों के दिलों में भी। 

सीट बंटवारा सबसे बड़ी चुनौती

बीजेपी के महायुति गठबंधन की सबसे बड़ी चुनौती सीटों के बंटवारे की है। 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में अब तक बीजेपी और शिवसेना ठाकरे आधी-आधी या कभी-कभी 171 और 121 सीट पर लड़ते रहे हैं। दोनों को कभी तकलीफ भी नहीं हुई, लेकिन पिछले चुनाव में बीजेपी ने 100 फीसदी का नारा दिया और ठाकरे की शिवसेना को कमजोर किया। उसके बाद उनके रास्ते अलग हो गए। अब सबसे मुश्किल सवाल यही कि महायुति में बंटवारा कैसे हो? बीजेपी के पास अभी खुद के 103 और निर्दलीय 10 मिलाकर 113 विधायक हैं। बीजेपी कम से कम 180 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है। ऐसे में उसके दो सहयोगी शिवसेना शिंदे और एनसीपी अजित पवार के हिस्से में कुल बची 100 सीटों में से अधिकतम 50–50 आ सकती हैं, लेकिन शिंदे के पास खुद के अभी 54 विधायक हैं तो अजित पवार के पास 44 विधायक। तीनों पार्टियां उन जगहों को भी चाहती हैं, जहां उनके उम्मीदवार नंबर दो पर थे। अब इसका तोड़ निकालना कठिन होगा। 

क्यों है सीटों की चुनौती?

लोकसभा चुनाव में भी खींचतान हुई और एकनाथ शिंदे 14 सीट लेने में कामयाब रहे। वहीं अजित पवार 4 सीट पर लड़े, इसलिए बीजेपी को राहत मिली, लेकिन विधानसभा में अब शिंदे कम से कम 100 और अजित पवार भी 100 सीट मांग रहे हैं, इसका हल निकालना कठिन काम है। उधर, दूसरी तरफ महागठबंधन में भी खींचतान है, लेकिन सभी दल 96-96 सीट पर लड़ने लगभग तैयार हैं, इसलिए बात बन सकती है। कुछ सीटों पर अदला-बदली होगी। 

अजित पवार बोझ या मददगार?

लोकसभा चुनाव में अजित पवार केवल एक सीट जीत पाए और उनकी पत्नी सुनेत्रा पवार हार गईं, इसलिए सवाल उठने लगा कि बीजेपी आगे भी अजित को साथ रखेगी या नहीं? अजित को लेकर बीजेपी कैडर नाराज है, उन्हें लगता है कि पवार पर करप्शन के आरोप रहे हैं और उन्हें लेने के बाद अब बीजेपी किस मुंह से करप्शन की बात करेगी। अमित शाह ने भी शरद पवार को करप्शन का सरगना कहा तो सवाल उठा कि अजित पवार को क्यों रखा जा रहा है? बीजेपी की कोर ग्रुप में भी सवाल उठा और संघ से प्रेरित पत्रिका 'विवेक' ने लिखा कि अजित पवार बोझ बन गए हैं? इन सब हालातों के बीच क्या अजित पवार बाहर जाएंगे, लेकिन लोकसभा के रिजल्ट के बाद बीजेपी ये मैसेज नहीं देना चाहती कि उसने किसी सहयोगी को छोड़ दिया। भले उसका एक लोकसभा मेंबर है, इसलिए अजित बीजेपी की मजबूरी बन गए हैं। वे खुद भी बीजेपी के साथ रहना चाहते हैं, उनका फैसला विधानसभा चुनाव के बाद ही होगा। 

बीजेपी की आपसी खींचतान

सहयोगी दलों के साथ-साथ बीजेपी की राज्य इकाई में भी खींचतान है। एक तरफ देवेंद्र फणनवीस किसी तरह फिर सीएम बनना चाहते हैं तो दूसरी तरफ विनोद तावड़े जोर लगा रहे हैं। आशीष शैलार, पंकजा मुंडे सब उनके विरोधी माने जाते हैं। प्रदेश बीजेपी में दो गुट हैं, एक जो संघ और पीएम मोदी का वफादार है। दूसरा, वे जिन पर अमित शाह का हाथ है। इसकी साफ झलक लोकसभा चुनाव में दिखी और अब विधानसभा में भी बीजेपी किसी एक चेहरे को आगे नहीं रख सकती। बीजेपी की इसी खींचतान के चलते केंडिडेट सिलेक्शन से लेकर प्रचार तक हर जगह कैडर में भ्रम दिखाई देता है। इसी का असर वोट पर होता है। हालांकि अश्विनी वैष्णव और भूपेंद्र यादव को भेजा गया है, पर उनका झुकाव फणनवीस की तरफ ज्यादा दिखाई देता है। 

एम फैक्टर का असर

लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को एम फैक्टर यानी मराठा, मुस्लिम और महार यानी दलित विरोध का सामना करना होगा। मराठा आरक्षण चाहते हैं। मुस्लिम बीजेपी विरोधी हैं और महार यानी दलितों को संविधान से छेड़छाड़ का मुद्दा सताता रहा है। लोकसभा में तीनों ने महागठबंध का साथ दिया, जिससे कांग्रेस को ज्यादा फायदा हुआ। अब विधानसभा चुनाव में बीजेपी को इस फैक्टर को तोड़ना होगा, तभी बात बनेगी। राज्य में मराठा करीब 22 फीसदी, मुस्लिम 13 फीसदी और महार यानी दलित करीब 12 फीसदी हैं। आदिवासी भी बीजेपी के साथ नहीं दिख रहे हैं। 

ओबीसी ही सहारा 

बीजेपी को महाराष्ट्र में अब तक मिली सफलता में बीजेपी, संघ का माधव फॉर्मूला रहा है, जिसमें 'म' यानी माली, 'ध' यानी धनगर और 'व' मतलब बंजारा समाज। गोपीनाथ मुंडे, एकनाथ खडसे जैसे दिग्गज नेताओं के कारण ओबीसी हमेशा से बीजेपी के साथ रहा है, क्योंकि वो राज्य में मराठा वर्चस्व को तोड़ना चाहता है, लेकिन बीजेपी ने ओबीसी को बचाने के लिए बहुत कुछ नहीं किया। इसलिए अब ओबीसी में बिखराव है। माली वोटर अब छगन भुजबल के साथ हैं। धनगर बंटे हुए हैं। उनके सबसे बड़े नेता महादेव जानकर लोकसभा का चुनाव हार गए। वहीं पंकजा मुंडे के कारण बंजारा समाज नाराज है। बीजेपी को इन सबको साधना है तो यूपी की तरह छोटी जातियों और उनके नेताओं को साथ लाकर टिकट देना होगा।

क्षेत्रीय और छत्रप की चुनौती...

महाराष्ट्र में मोटे तौर पर पांच इलाके माने जाते हैं। इनमें विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र, उत्तर महाराष्ट्र यानी खानदेश और मुंबई सहित कोंकण किनार पट्टी। इन सब इलाकों में इस बार बीजेपी को निराशा हाथ लगी, जबकि विदर्भ और उत्तर महाराष्ट्र को बीजेपी का गढ़ माना जाता है। इसके साथ महाराष्ट्र में 13 बड़े शहर हैं और बीजेपी की इन पर पकड़ रही है, लेकिन इन सबको अब साधना होगा... 

  1. बात विदर्भ से करते हैं। विदर्भ की 11 लोकसभा सीटों में से बीजेपी को इस बार केवल एक सीट मिल पाई, वो भी इसलिए कि नागपुर से नितिन गड़करी चुनाव मैदान में थे और उनके सामने कांग्रेस का प्रत्याशी कमजोर था। विदर्भ में मुस्लिम और कुनबी बड़ी संख्या में हैं। कुनबी तो करीब 26 फीसदी है, जो नाना पटोले के कारण और बीजेपी की बेरुखी से कांग्रेस के साथ चला गए। उसके अलावा दूसरी बड़ी जाति हलबा कोष्टी भी चंद्रपुर में बीजेपी के खिलाफ गई। बीजेपी के साथ केवल चार फीसदी वाली कोमटी समाज की गई। बीजेपी को पिछले चुनाव में विदर्भ की 62 सीटें में से 29 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस के हाथ 15 सीट आई थी। इस बार ये मामला उलट सकता है। 
  2. मराठवाड़ा की बात करें तो बीजेपी ने यहां अपनी जड़ें जमाने में कामयाबी हासिल की थी, लेकिन लोकसभा में मराठा आरक्षण के सवाल और देवेंद्र फणनवीस के ब्राह्मण विलेन बनने से बीजेपी का पत्ता साफ हो गया। यहां तक कि अशोक चव्हाण जैसे दिग्गज नेता के आने के बाद भी कांग्रेस कमजोर नहीं हुई। चव्हाण की नांदेड़ सीट पर भी कांग्रेस जीत गई। अब बीजेपी को यहां संभलना होगा। वैसे ये कांग्रेस और एनसीपी का गढ़ रहा है, पर विधानसभा चनाव में यहां की 46 सीटों में से बीजेपी को 16 और तब की शिवसेना को 12 सीट मिल गई थीं। कांग्रेस तब यहां 8 पर सिमट गई थी। 
  3. पश्चिम महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण और मुस्लिम सबसे बड़े फैक्टर हैं। मराठा आरक्षण के कारण बीजेपी के खिलाफ विरोध दिख रहा है। ज्यादातर मराठा शरद पवार के साथ हैं। यहां तक कि अजित पवार की पत्नी भी इसलिए हार गईं और अब अजित की साख दांव पर है। अजित पवार हारे तो बीजेपी महायुति को उतनी सीटों का भी नुकसान होगा। 
  4. उत्तर महाराष्ट्र में बीजेपी ने कांग्रेस के बड़े नेता विखे पाटिल को तोड़ा, लेकिन मराठा आरक्षण और किसानों की नाराजगी के चलते खुद पाटिल के बेटे लोकसभा का चुनाव हार गए। शिकायत है कि बीजेपी ने खुद बाहर से आए मराठा नेताओं को कमजोर किया। अब बीजेपी को प्याज के किसानों की नाराजगी और बारिश के कारण फसल के नुकसान का मुद्दा भी देखना होगा। यहां बीजेपी अब भी ओबीसी वोट साधकर खुद को बचाकर रख सकती है। 
  5. मुंबई कोंकण में बीजेपी को चुनौती है कि ये शिवसेना और बाल ठाकरे का गढ़ है। आम मराठी मतदाता की सहानुभूति उद्धव ठाकरे के साथ है। यहां पर बीजेपी सबसे ज्यादा विधायक वाली पार्टी है, लेकिन अब लोकसभा में उसका एक उम्मीदवार जीत पाया और स्कोर 6 सीट में 4 और 2 का रहा।  ऐसे में बीजेपी को मुंबई की 36 और ठाणे की 24 विधानसभा सीटों में ज्यादा से ज्यादा जीतनी होंगी, लेकिन यहां बीजेपी और एकनाथ शिंदे की शिवसेना की आपसी खींचतान को संभालना होगा। 

पीएम नरेंद्र मोदी का कोई फैक्टर नहीं 

लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में मोदी फैक्टर नहीं चला। मोदी ने चुनावी महीनों में कुल 23 सभाएं की, जिनमें से 19 सीटें बीजेपी हार गई। विधानसभा चुनाव में वैसे भी डबल इंजन का मुद्दा अब नहीं चलने वाला, इसलिए बीजेपी ने बजट में एमपी की तरह लाड़ली बहना ही नहीं लाड़ला भाई और बेरोजगार भत्ता, किसानों को फ्री बिजली जैसी रेवड़ी बांटना शुरू कर दिया है। इनका कितना असर होगा, अभी कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी। फिलहाल बीजेपी के सामने महाराष्ट्र में एक नहीं, कई चुनौतियां हैं, लेकिन समय रहते सुधार किया तो बहुत कुछ बदल सकता है। इसमें सबसे पहला काम बीजेपी को अपने कैडर को सदमे से निकालकर फिर काम पर लगाना होगा। दूसरा, जातिगत समीकरण संभालते हुए काम करना होगा, तभी वापस लौटेंगे। 

आज की स्थिति में कौन कितना मजबूत...

  • बीजेपी-  58 से 72 पर
  • एकनाथ शिंदे शिवसेना- 22 से 30 पर
  • अजित पवार एनसीपी- 12 से 17 पर 
  • कांग्रेस- 52 से 62 पर 
  • उद्धव ठाकरे- 48 से 55 पर 
  • शरद पवार एनसीपी- 22 से 32 पर 
  • निर्दलीय- कम से कम 18 पर

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