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झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ किए गए आंदोलन को अधिकृत रूप से पहला स्वतंत्रता संग्राम माना जाता है। इसे अंग्रेजों ने 1857 की गदर कहा था। मगर क्या आपको पता है कि इससे भी करीब 15 साल पहले मध्य प्रदेश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत की चिंगारी उठ चुकी थी, जिसे बुंदेला विद्रोह कहा गया।
यह कहानी है उस जमाने की, जब भारत की मिट्टी पर जमी हुई थी अंग्रेजों की क्रूरतम ज़ुल्म की परतें। तब बुंदेलखंड की धरती पर फूटा था एक विद्रोह, जिसकी चिंगारी ने अंग्रेजी सत्ता को कंपा दिया था और जिसने आने वाले बड़े संघर्ष, 1857 के स्वाधीनता संग्राम की बुनियाद रखी थी। यह है बुंदेला विद्रोह (1842-43) की वीर गाथा, जो मध्य प्रदेश के सागर और नर्मदा के भाटा-भाग में तबलीगी आग की तरह फैल गई थी।
बुंदेला विद्रोह: एक ज्वाला जो भड़की
1840 के दशक की बात है। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बुंदेलखंड के कई हिस्से पर अपना शासन स्थापित कर रखा था। लेकिन जैसे-जैसे अंग्रेजों ने यहां अपनी पकड़ मजबूत की, किसानों, जमींदारों और ठाकुरों के लिए जिंदा रहना दूभर होता गया।
अंग्रेजों ने अपनाई एक ऐसी भू-राजस्व नीति, जो किसानों और मालगुजारों पर बेशुमार टैक्स लगाती थी। यह टैक्स भारत के पारंपरिक मराठा राजस्व से कहीं अधिक कठोर और दमनकारी था।
किसानों की जमीनें जब्त हो रही थीं, जमींदारों की संपत्ति खौफ के साए में आ गई थी, और उनके अधिकारों को नजरअंदाज कर दिया जा रहा था। स्थानीय राजा, ठाकुर और मालगुजार, जो सदियों से इस धरती के संरक्षक रहे थे, वे अब अंग्रेजी हुकूमत के जंजीरों में जकड़े जा रहे थे।
राजस्व वसूली का यह खेल केवल आर्थिक शोषण ही नहीं, बल्कि स्थानीय सत्ता और स्वाभिमान की हत्या भी थी। और बदले में मिली ब्रिटिश सशासन की कठोरता ने उठे हुए आक्रोश को उबाल दिया।
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विद्रोह की ज्वाला भड़की - 8 अप्रैल 1842
इस दुःख और अन्याय की आग ने 8 अप्रैल 1842 को ऊंची आग की लपटें बनकर बुंदेला राजाओं और जागीरदारों के दिलों में आग लगा दी। नरहट के वीर नेता मधुकर शाह बुंदेला ने सबसे पहले इस विद्रोह की मशाल जलाई। उनके साथ खड़े हुए थे चंद्रपुर के जवाहर सिंह बुंदेला और गणेशजू बुंदेला।
न केवल ठाकुर और जमींदार बल्कि किसानों और आम जनता ने भी इस क्रूर शासन के खिलाफ संगठित होकर लड़ाई छेड़ दी। लड़ाई सिर्फ किसी राजनीतिक विरोध से ज्यादा थी, यह थी अपनी धरती, अपनी स्वतंत्रता और अपने सम्मान के लिए जोश और जूनून की लड़ाई।
विद्रोह का प्रसार: आग की लपटें बुंदेलखंड में
जल्द ही सागर, नरसिंहपुर, जबलपुर, हीरापुर और आसपास के इलाके विद्रोह की लपेट में आ गए। अंग्रेजों की चौकियों पर हमले होने लगे। स्थानीय दुर्गों पर कब्जा किया गया। राजस्व वसूली की कार्यवाही ठप पड़ गई।
विद्रोह की ताकत इतनी थी कि कई जगह अंग्रेजी हुकूमत का अस्थायी ढांचा टूट गया। नरसिंहपुर क्षेत्र में इस विद्रोह को खास सफलता मिली, जहां ब्रिटिश शासन को कड़ी चोट लगी।
लगभग दो साल तक यह विद्रोह जारी रहा, अंग्रेजी सैनिक एक ओर विद्रोहियों को दबाने की कोशिश करते रहे, तो दूसरी ओर बुंदेला राजाओं और जागीरदारों ने अपना पूरा जीवन दांव पर लगा दिया।
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बुंदेला विद्रोह के महानायक
राव मधुकर शाह बुंदेला — आजादी का जज्बा और बलिदान
- 21 वर्ष के योद्धा, मधुकर शाह बुंदेला ने अंग्रेजों की दरिंदगी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। उनके नेतृत्व में बुंदेलखंड के कई भागों में क्रांति की हवा चली।
- वे ब्रिटिश सैनिकों पर कई बार हमला कर दुर्गों और खजाने पर कब्जा कर चुके थे। पर अंग्रेजों ने साजिश के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
- उनकी फांसी सागर की जेल में हुई, पर उनके बलिदान ने बुंदेलखंड के लोगों के दिलों में आजादी की लौ जरा दी। आज भी सागर में उनके नाम पर स्मारक और पार्क हैं जो उनकी स्मृति को जीवित रखते हैं।
जवाहर सिंह बुंदेला — मालगुजारी के खिलाफ सशक्त आवाज
- चंद्रपुर के जागीरदार जवाहर सिंह बुंदेला ने अंग्रेजों की जमीन से जुड़े अन्याय के खिलाफ भरी सामरिक लड़ाई लड़ी। उनकी बहादुरी ने अंग्रेजों की नीतियों को चुनौती दी और उन्होंने कई जंगों में अंग्रेजी सेनाओं को परास्त किया।
राजा हिर्दे शाह लोधी — जातीय संगठक और विद्रोही
- हीरापुर के राजा हिर्दे शाह ने बुंदेला, गोंड, और लोधी जनजाति के साथ मिलकर विद्रोह को और भी व्यापक और संगठित बनाए रखा। उनके नेतृत्व में कई क्षेत्रों में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई की महफिल सजी रही।
अन्य वीर योद्धा
- नरसिंहपुर के डेलनशाह, सुआताल के राजा रणजीत सिंह, हीरापुर के राजा हृदयशाह और गणेशजू बुंदेला ने मिलकर अंग्रेजों के गलत व्यवहार के खिलाफ एकजुट होकर बड़ा सशस्त्र प्रतिरोध खड़ा किया।
बुंदेला विद्रोह का महत्व और विरासत
बुंदेला विद्रोह केवल एक स्थानीय विद्रोह नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की कठोर भू-राजस्व नीति, अनुचित प्रशासनिक दमन और सामाजिक असमानता के खिलाफ एक संगठित और सशक्त आवाज थी।
इसने अंग्रेजों को दिखा दिया कि भारतीयों में आजादी की आग बुझाई नहीं जा सकती। यह विद्रोह था भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के उस विशाल आंदोलन की पहला अध्याय, जिसने 15 साल बाद 1857 की क्रांति के रूप में प्रचंड रूप लिया।
1857 की क्रांति और बुंदेला विद्रोह का मेल
1857 के विद्रोह को इसलिए 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम' कहा जाता है क्योंकि इसमें पूरे भारत के विभिन्न धर्म, जाति और वर्ग के लोग साथ रहे और अंग्रेजों के विरुद्ध एक व्यापक संघर्ष छेड़ा गया।
जहां बुंदेला विद्रोह क्षेत्रीय और सीमित था, वहीं 1857 की लड़ाई ने पूरे देश को मिलाया। हिंदू-मुस्लिम एकता, संगठित नेतृत्व और सामरिक क्षमता ने इस आंदोलन को एक शक्तिशाली राष्ट्रीय स्वरूप दिया।
इतिहासकारों के मुताबिक, बुंदेला विद्रोह ने 1857 के आन्दोलन के बीज बोए, जिन्होंने अंग्रेजों की सत्ता को पहली बार अस्तित्वगत खतरे में डाल दिया।
देशभक्ति के रंग में रंगा बुंदेला विद्रोह
यह कहानी उस धरती की है जहां युवाओं ने फांसी की सजा भी झेली, पर अपनी आज़ादी की लहरें थमने नहीं दीं। मधुकर शाह के कंधों पर हम गुरूर करते हैं, जिनके बलिदान ने बुंदेलखंड की मिट्टी को आजादी की सनक दी।
उनके साथी जवाहर सिंह, राजा हिर्दे शाह और अन्य शूरवीरों की वीरता हमें सिखाती है कि कैसे अधीनता के खिलाफ उठो, झुको नहीं, हारो नहीं। अंग्रेज चाहे कितने भी ताकतवर हों, जब तक हमारे दिलों में देशभक्ति की आग जलेगी, वे कभी हमारी आजादी को कुचल नहीं पाएंगे।
बुंदेला विद्रोह इतिहास का वो अमिट अध्याय है, जो हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता की लड़ाई आसान नहीं होती; वह बलिदान मांगती है, साहस मांगती है।
1842 के बुंदेला सेनानियों ने दिखा दिया कि वीरता की असली परिभाषा क्या होती है। स्वतंत्रता संग्राम का यह अग्रदूत हमारे दिलों में देशभक्ति की लौ को प्रज्वलित करता है, जो आज भी हमें हमारी मातृभूमि के लिए जीने और मरने की प्रेरणा देता है।
हम सब को चाहिए कि हम इस वीरता का सम्मान करें, इतिहास को जानें और अपने देश के लिए गर्व महसूस करें। यही वह कहानी है, जिसका रसास्वादन हर भारतीय के लिए अनिवार्य है।
संदर्भ:
"भारत का संघर्ष: स्वतंत्रता के लिए लड़ाइयां" – डॉ. रामप्रकाश मिश्र
https://mppscpeb.com/bundela-vidroh/
https://historysaransh.com/causes-of-bundela-rebellion-1842/
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