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केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर संविधान से 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने का सुझाव दिया। उनका कहना था कि ये शब्द भारतीय संस्कृति में पहले से मौजूद हैं। वह मानते हैं कि संविधान में इन शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने यह बयान वाराणसी में आपातकाल के दौरान जेल में बिताए गए दिनों को याद करते हुए दिया।
इस बयान के बाद शिवराज सिंह का यह विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) द्वारा संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों की समीक्षा करने की अपील के संदर्भ में आया था। आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने कहा था कि ये शब्द आपातकाल (Emergency) के दौरान जोड़े गए थे, जबकि बीआर आंबेडकर द्वारा तैयार संविधान में ये शब्द शामिल नहीं थे। आरएसएस का मानना था कि इन शब्दों को संविधान में जोड़ने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि इनका कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक आधार नहीं था।
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शिवराज सिंह ने इस पर जोर देते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में जो भावनाएं 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों में छिपी हैं, वे पहले से मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि भारत हमेशा से सभी धर्मों को समान रूप से सम्मान देने वाला देश रहा है। उन्होंने अपने बयान में यह भी कहा कि स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में अपने भाषण में कहा था कि किसी भी रास्ते पर चलो, अंत में सब परमपिता परमात्मा के पास पहुंचेंगे।
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शिवराज सिंह ने भारतीय संस्कृति की मूल भावनाओं को भी साझा किया। उन्होंने कहा, "अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्," जिसका अर्थ है कि यह सारी दुनिया ही एक परिवार है। यह भारत का मूल विचार है। इसके अलावा उन्होंने 'सियाराम मय सब जग जानी' का भी जिक्र किया, जिसका अर्थ है कि सभी को समान रूप से देखो। उन्होंने कहा कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द की जरूरत नहीं है, क्योंकि भारत का मूल विचार 'एकता' और 'सद्भाव' में निहित है।
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शिवराज सिंह ने आपातकाल के दिनों को याद करते हुए कहा कि उन्होंने उस दौरान जेल में काफी अमानवीय अत्याचार देखे थे। वह बताते हैं कि वह आपातकाल के खिलाफ पर्चियाँ बांटते थे और उस समय सिर्फ 16 साल के थे। उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया और भोपाल सेंट्रल जेल में बंद कर दिया। यह उनके लिए लोकतंत्र का काला दौर था और वह इसे कभी भूल नहीं पाएंगे।
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शिवराज सिंह का मानना है कि इन शब्दों पर पुनः विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि ये भारतीय संस्कृति और समाजवाद की जड़ों में पहले से हैं। वह इसे भारतीय लोकतंत्र और संस्कृति के अनुकूल मानते हैं, और इस पर गहरी चर्चा की आवश्यकता महसूस करते हैं।