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जितिया जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म में महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण और कठिन व्रत है। यह मुख्य रूप से भारत के उत्तरी राज्यों जैसे बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल में मनाया जाता है।
इस व्रत को संतान की लंबी उम्र, स्वास्थ्य और सुख-समृद्धि की कामना के लिए रखा जाता है। यह व्रत तीन दिनों तक चलता है और इसमें निर्जला उपवास का विशेष महत्व होता है। इस वर्ष 14 सितंबर, रविवार को मनाया जाएगा।
धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, इसे करने वाली माताओं को कभी भी संतान-वियोग का दुख नहीं सहना पड़ता। यह व्रत माताओं के अटूट प्रेम और समर्पण का प्रतीक है जो अपनी संतानों के कल्याण के लिए इस कठिन और निर्जला उपवास को रखती हैं।
यह व्रत तीन दिनों तक चलता है और हर दिन का अपना विशेष महत्व होता है। आइए, जानें इस पावन पर्व से जुड़ी तिथियां, शुभ मुहूर्त और पूजा विधि के बारे में।
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पूजा सामग्री
जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा पुस्तक
धूप, दीप, अगरबत्ती
फल, फूल, मिठाई
सिंदूर, अक्षत, रोली
गंगाजल, पान, सुपारी
बांस के पत्ते
कुश (दर्भ) से बनी जीवित्पुत्रिका देवी की प्रतिमा
मिट्टी से बनी सियारिन और चिलहोरिन की मूर्तियां
इस दिन महिलाएं जीवित्पुत्रिका देवी की पूजा करती हैं और व्रत की कथा सुनती हैं। कथा के बाद, वे देवी से अपनी संतानों की रक्षा और दीर्घायु का आशीर्वाद मांगती हैं।
जितिया व्रत का महत्व
जितिया व्रत (Bihar Jitiya Festival) अश्विन मास (ashwin month) के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत तीन चरणों में पूरा होता है: नहाय-खाय, निर्जला व्रत और पारण।
13 सितंबर (शनिवार): नहाय-खाय से व्रत की शुरुआत
पंचांग के मुताबिक, व्रत का पहला दिन 'नहाय-खाय' होता है।
इस दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठकर स्नान करती हैं और स्वच्छ वस्त्र पहनती हैं।
इसके बाद, सूर्योदय से पहले वे भोजन ग्रहण करती हैं।
इस भोजन में विशेष रूप से सरगही नामक व्यंजन शामिल होता है, जिसमें चावल, दाल और अन्य शुद्ध पकवान होते हैं।
यह भोजन पूरे दिन के निर्जला उपवास के लिए ऊर्जा प्रदान करता है।
14 सितंबर (रविवार): निर्जला व्रत
पंचांग के मुताबिक, व्रत का दूसरा दिन सबसे महत्वपूर्ण होता है।
इस दिन महिलाएं पूरे 24 घंटे तक बिना अन्न और जल के कठोर निर्जला उपवास रखती हैं।
इस दिन सुबह स्नान के बाद पूजा की तैयारी की जाती है।
पूजा के लिए घर के आंगन में या किसी पवित्र स्थान पर व्रत की कथा सुनी जाती है।
15 सितंबर (सोमवार): व्रत का समापन
व्रत का तीसरा और अंतिम दिन 'पारण' कहलाता है।
सूर्योदय के बाद महिलाएं पूजा करती हैं और व्रत का पारण करती हैं।
पारण के लिए दही और चुरा (चूड़ा) का सेवन किया जाता है, जिसे बेहद शुभ माना जाता है।
इस दिन महिलाएं अपनी संतानों के लिए विशेष पकवान बनाती हैं और उन्हें खिलाती हैं।
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अष्टमी तिथि का समय
अष्टमी तिथि की शुरुआत: 14 सितंबर, रविवार, सुबह 05 बजकर 04 मिनट पर।
अष्टमी तिथि का समापन: 15 सितंबर, सोमवार, देर रात 03 बजकर 06 मिनट पर।
पूजा विधि
जितिया पर्व के दिन की शुरुआत प्रभु के ध्यान से करें और स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहनें।
घर के मंदिर की सफाई करें और गंगाजल का छिड़काव कर उसे शुद्ध करें।
एक चौकी पर साफ कपड़ा बिछाकर भगवान जीमूतवाहन की प्रतिमा स्थापित करें।
घी का दीपक जलाकर भगवान की आरती करें।
व्रत कथा का पाठ या श्रवण करें।
"ॐ जीमूतवाहन देवाय नमः" जैसे मंत्रों का जाप करें।
भगवान को फल और मिठाई का भोग लगाएं और संतान की खुशहाली के लिए प्रार्थना करें।
पूजा के बाद, विशेष चीजों का दान करें।
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जितिया व्रत के नियम
जितिया व्रत के नियम बहुत ही सख्त होते हैं। इन नियमों का पालन करना व्रत के फल के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
वाद-विवाद से बचें: व्रत के दिन किसी से भी वाद-विवाद न करें और मन को शांत रखें।
काले कपड़े न पहनें: इस दिन काले रंग के कपड़े पहनना अशुभ माना जाता है।
नकारात्मक विचार न लाएं: किसी के बारे में बुरा न सोचें और मन में नकारात्मक विचारों को न आने दें।
साफ-सफाई का ध्यान रखें: घर और मंदिर की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।
तामसिक भोजन से बचें: व्रत के दौरान और पारण के दिन तामसिक भोजन (प्याज, लहसुन, मांस, शराब) का सेवन बिल्कुल न करें।
विशेष दान करें: मान्यता है कि इस दिन दान करने से धन लाभ के योग बनते हैं और जीवन में किसी भी चीज की कमी नहीं होती।
दान में क्या दें: मंदिर या गरीब लोगों में धन, अन्न, कपड़े, काले तिल और अन्य वस्तुएं दान करें।
जितिया व्रत की पौराणिक कथाएं
जितिया व्रत से जुड़ी दो मुख्य कहानियां माताओं के त्याग और समर्पण के महत्व को दर्शाती हैं।
पहली कथा: जीमूतवाहन और गरुड़
गंधर्वों के राजा जीमूतवाहन बहुत दयालु थे। उन्होंने एक नागवंश की वृद्धा को रोते हुए देखा, जो अपने इकलौते बेटे को गरुड़ की बलि के लिए भेज रही थी।
जीमूतवाहन ने उस पुत्र की जगह खुद को गरुड़ का भोजन बनने के लिए पेश कर दिया। उनकी निस्वार्थता देखकर गरुड़ बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने भविष्य में किसी भी नाग को न मारने का वचन दिया। जीमूतवाहन के इस त्याग के कारण ही माताएँ अपनी संतान की रक्षा के लिए इस व्रत को करती हैं।
दूसरी कथा: सियारिन और चिलहोरिन
एक सियारिन और एक चिलहोरिन (चील) ने मिलकर जीवित्पुत्रिका व्रत रखने का फैसला किया। व्रत के दौरान, सियारिन ने चुपके से भोजन कर लिया, जबकि चिलहोरिन ने पूरे नियम से निर्जला उपवास रखा।
व्रत के बाद, सियारिन की सभी संतानें मर गईं, जबकि चिलहोरिन की सभी संतानें सुरक्षित रहीं। इस घटना से सियारिन को अपनी गलती का एहसास हुआ। यह कथा सिखाती है कि व्रत का फल तभी मिलता है जब उसे पूरी निष्ठा और श्रद्धा से किया जाए।
यह व्रत न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है बल्कि यह माताओं और उनकी संतानों के बीच के पवित्र रिश्ते को और मजबूत करता है। यह माताओं के त्याग और समर्पण को सम्मान देने का एक अवसर है।
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डिस्क्लेमर: इस आर्टिकल में दी गई जानकारी पूरी तरह से सही या सटीक होने का हम कोई दावा नहीं करते हैं। ज्यादा और सही डिटेल्स के लिए, हमेशा उस फील्ड के एक्सपर्ट की सलाह जरूर लें।