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संत कबीर जयंती हर वर्ष ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। यह तिथि हिंदू पंचांग के मुताबिक आमतौर पर मई या जून में पड़ती है। इस दिन संत कबीरदास की स्मृति में विभिन्न स्थानों पर सत्संग, भजन, कीर्तन और उनके उपदेशों का पाठ किया जाता है।
संत कबीर जयंती न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक सुधार और समरसता का संदेश देने वाली भी है। ऐसे में आज कबीर जयंती के मौके पर आइए उनके कुछ प्रसिद्ध दोहे को याद करते हैं।
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संत कबीर का जीवन परिचय
संत कबीरदास 15वीं शताब्दी के महान संत, कवि और समाज सुधारक थे। उनका जन्म काशी (वाराणसी) के पास लहरतारा में हुआ माना जाता है। एक कथा के मुताबिक उन्हें एक मुस्लिम दंपति नीरू और नीमा ने गंगा तट पर पाया और अपने पुत्र की भांति पाला। कबीरदास ने किसी गुरु से औपचारिक शिक्षा नहीं ली, परंतु उन्होंने जीवन के अनुभवों से गहन ज्ञान प्राप्त किया।
उन्होंने न तो हिंदू धर्म को पूरी तरह अपनाया और न ही मुस्लिम धर्म को। उनका मानना था कि भगवान एक है और उसे सच्चे हृदय से पूजा जाए। कबीरदास ने जातिवाद, पाखंड, मूर्तिपूजा और धार्मिक आडंबरों का विरोध किया।
उनका मानना था कि ईश्वर एक है और उसे सच्चे हृदय से याद करने से ही उसका अनुभव किया जा सकता है। उन्होंने साधारण जनमानस की भाषा में दोहे रचे, जो आज भी जन-जन में प्रचलित हैं। उन्होंने प्रेम, समानता और भाईचारे का संदेश दिया। कबीर जी के दोहे आज भी समाज को आत्मचिंतन और सुधार की प्रेरणा देते हैं।
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संत कबीर के प्रसिद्ध दोहे और उनके अर्थ
संत कबीर के दोहे आज भी हमारी जिंदगी में जरूरी स्थान रखते हैं। उनके दोहे हमें जीवन के सच्चे अर्थ और आत्मचिंतन का मार्ग दिखाते हैं। यहां कुछ प्रसिद्ध दोहे और उनके अर्थ दिए गए हैं:
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥"
- इस दोहे में कबीरदास यह समझाते हैं कि जब इंसान दूसरों में बुराई खोजता है तो कुछ नहीं मिलता, लेकिन जब वह खुद को देखता है तो उसे सबसे बड़ी कमी खुद में मिलती है। यह आत्मचिंतन का संदेश है।
"पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥"
- कबीरदास यह कह रहे हैं कि अधिक ग्रंथ पढ़ने से कोई विद्वान नहीं बनता। सच्चा ज्ञान प्रेम की भावना को समझने और अपनाने में है।
"साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय॥"
- संत को ऐसा होना चाहिए जो अनावश्यक बातों को त्याग कर केवल सत्य और सार को अपनाए।
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥"
- किसी व्यक्ति की जाति नहीं, उसके ज्ञान और व्यवहार को महत्व देना चाहिए। जैसे तलवार की धार मूल्यवान होती है, म्यान नहीं।
"दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय॥"
- मनुष्य केवल दुःख में ईश्वर को याद करता है। यदि वह सुख में भी ईश्वर को स्मरण करे, तो उसे कभी दुख का सामना नहीं करना पड़ेगा।
"ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय॥"
- व्यक्ति को ऐसी बातें करनी चाहिए जो उसके मन को शांत और दूसरों के मन को भी शांति प्रदान करें। इस प्रकार की वाणी बोलने से मन का अहंकार दूर होता है और सच्ची शांति मिलती है।
"चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ। दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥"
- यह उदाहरण चाकी के दो पाटों का है। जैसे चाकी के दोनों पाट आपस में रगड़कर आटा पीसते हैं, वैसे ही जीवन के संघर्षों में व्यक्ति दुःख-सुख के बीच फंसा रहता है। कबीर जी यह बताते हैं कि जीवन में समर्पण और संतुलन की आवश्यकता है, और कोई भी बचने नहीं पाता।
"माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर। कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर॥"
- माला जपने से जब तक मन में विकार और अज्ञानता है, तब तक वास्तविक भक्ति नहीं हो सकती। कबीर जी यह कहते हैं कि माला की संख्या नहीं, बल्कि मन की शुद्धता और सही भावना महत्वपूर्ण है।
"गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताय॥"
- यह दोहा गुरु की महिमा का वर्णन करता है। कबीर जी कहते हैं कि भगवान और गुरु दोनों सामने खड़े हैं, लेकिन गुरु को अपनी श्रद्धा अर्पित करनी चाहिए क्योंकि उन्होंने ही हमें भगवान का सही मार्ग बताया है।
संत कबीर के दोहे हमें क्या सिखाते हैं
संत कबीर के दोहे हमें जीवन में सच्चाई, प्रेम, भक्ति और समरसता का मार्ग दिखाते हैं। उनके विचारों में समाज में फैले भेदभाव, जातिवाद और धार्मिक आडंबरों का विरोध करते हुए एकता, भाईचारे और मानवता का संदेश दिया गया है। संत कबीर का साहित्य आज भी समाज को जागरूक करने और आत्मचिंतन की प्रेरणा देने वाला प्रकाशपुंज है।
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