Gwalior: मेयर पद पर विपक्ष ने लड़ा दिया एक पत्रकार,परेशान हो गई थी बीजेपी

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Dev Shrimali
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Gwalior: मेयर पद पर विपक्ष ने लड़ा दिया एक पत्रकार,परेशान हो गई थी बीजेपी

देव श्रीमाली Gwalior.आज विपक्ष के विधायकों का टूटकर जाना आम बात हो गई है। पहले हमने सत्ता पक्ष के विधायक टूटने के कारण एमपी की कांग्रेस की कमलनाथ सरकार असमय गिर गई । इस मामले में खरीद फरोख्त के आरोप भी लगे । हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव में भी सत्ता और विपक्ष दोनो के वोट बिखरे और फिर इनके बिकने के आरोप भी लगे लेकिन एक दौर ऐसा था जब विपक्ष के वोट बिकते नही थे बल्कि उनकी एकजुटता से सशक्त सत्तापक्ष तक हिल जाता था। ग्वालियर नगर निगम में ऐसा भी हो चुका है कि बहुमत होते हुए भी विपक्ष की एकजुटता से सत्ता पक्ष की चूलें हिल गयीं थीं .विपक्ष ने एकजुट होकर एक पत्रकार को मेयर पद के लिए मैदान में उतार दिया और बीजेपी यानी परिषद् में बहुमत वाली पार्टी को अपने पार्षदों को बाड़ाबंदी करनी पडी थी।



बाकया 1986  का है। इस बार भी सदैव की तरह नगर निगम चुनावों में बीजेपी बहुमत के साथ जीतकर पहुँची। बीजेपी के 25 पार्षद जीते और निर्दलीयों सहित विपक्ष के 19 पार्षद जीतकर पहुंचे। इनमे नौ कांग्रेस के थे ,बाकी लोकदल,सीपीआई,सीपीएम ,हिन्दू महासभा और निर्दलीय थे।



 



बीजेपी में बगावत



असल में इस बार बीजेपी में प्रत्याशी को लेकर बगावती स्वर उभर रहे थे। पार्षदों के जरिये मेयर चुना जाना था लेकिन चुनाव लड़ने वाले के लिए पार्षद होना जरूरी नहीं था। चूंकि हर बार मेयर बीजेपी का ही चुना जाता था और वह भी निर्विरोध ही निर्वाचित हो जाता था इसकी कसक विपक्ष को सदैव रहती थी। तब मेयर एक वर्ष के लिए चुना जाता था। 1984 में बीजेपी ने कांग्रेस से तोड़कर लाये गए डॉ धर्मवीर को मेयर बनवा दिया और 1985 माधव शंकर इंदापुरकर  भी निर्विरोध मेयर बन गए। लेकिन 1986 में  विपक्ष को आशा की किरण दिखी क्योंकि बीजपी के नौ पार्षद बागी हो गए थे । वे मोहन सिंह कोटिया को मेयर बनाने पर अड़े थे जबकि पार्टी भाऊ साहब पोतनीस का नाम तय कर चुकी थी । बीजपी के बागी तो हुए लेकिन  वे कांग्रेस के नेता को वोट देने को राजी नहीं थे इसलिए नया गणित भिड़ाया गया। तय  किया गया कि किसी गैर राजनीतिक व्यक्ति को मेयर का चुनाव लड़ाया जाए ताकि कोई टकराव न हो। अगर बीजेपी के नौ पार्षद टूटकर विपक्ष के प्रत्याशी को वोट दे देंगे तो वह जीत जाएगा विपक्ष के 19 और बीजेपी के बागी नौ मिलकर 28 हो जाएंगे और बीजेपी के घटकर 16 ही रह जाएंगे।





पत्रकार मैदान में





विपक्ष की साझा बैठक हुई। इसमें तब लोकदल के पार्षद रहे जगदीश शर्मा ने तब के युवा और अब वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल को मैदान में उतारने का सुझाव दिया। इस पर सब सहमत हो गए। तब अचल जी थानीय दैनिक आचरण में काम करते थे और राष्ट्रीय दैनिक जनसत्ता के ग्वालियर संवाददाता भी थे। अचल जी पर आचरण के मालिक स्व एएच कुरैशी के जरिये दबाव डलवाया गया कि वे चुनाव न लड़ें। यहाँ तक कि स्व कुरैशी स्वयं  जाकर रिटर्निंग ऑफिसर के कक्ष में जाकर बैठ गए कि अचल जी नामांकन न भर सकें। लेकिन मामला  तू डाल -डाल ,मैं पात - पात का था. जब नामांकन भरने का समय तकरीबन खत्म होने को था सो आश्वस्त होकर कुरैशी जी सिगरेट पीने बाहर निकल गए ।  मौक़ा ताड़े खड़े अचल जी अपने प्रस्तावक - समर्थकों के साथ फटाफट दूसरे  गेट से घुसे और अपना नामांकन डाल  आये।  असल में यह लिहाज की बात थी वह ऐसा ही दौर था। अचल जी ने भी कहा कि अगर कुरैशी जी सामने आ गए तो फिर उन्हें मना नहीं कर पाऊंगा  और स्व कुरैशी को भी ऐसा ही भरोसा था।





पहली बार करनी पड़ी थी बाड़ाबंदी



 




आजकल कोई भी चुनाव हो सभी समर्थक लोगों को एक साथ रखने की बात आम हो गयी है। कमलनाथ अपने विधायकों को संभलकर नहीं रख सके तो वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में बीजेपी के कब्जे में बेंगलुरु चले गए।  नतीजा सबके सामने है। कमलनाथ की सरकार ही गिर गयी। हाल ही में हुए  राज्य सभा चुनावों में कांग्रेस ने राजस्थान के अपने विधायकों को छत्तीसगढ़ भेज दिया और तब जाकर अपने सभी प्रत्याशी जीता पाए लेकिन इस बाड़ाबंदी की शुरुआत ग्वालियर में हुई  थी ।  वह भी नगर निगम चुनावों में। पार्षदों के बागी हो जाने से पार्टी परेशान थी उस पर भी विपक्ष ने अप्रत्याशित रूप से अपना प्रत्याशी भी मैदान में उतार  दिया था । हालाँकि बागी पार्षद विपक्ष के संपर्क में थे  और उन्होने  आश्वासन भी दिया था लेकिन मतदान के दो दिन पहले उनसे बीजेपी के बड़े नेताओं ने संपर्क साधा। बातचीत,मान- मनोब्बल हुआ और आखिरकार सबको ले जाकर बीजेपी दफ्तर में रख  दिया गया। वहां से सभी 25 पार्षदों  को एक साथ निकालकर सीधे जलविहार ले जाया गया जहाँ मतदान होना था। इस बीच विपक्ष के लोगों का इनसे कोई संपर्क ही नहीं हो सका जब तक कि सबने वोट नहीं डाल दिया।





कम्युनिस्ट - हिन्दू महासभा एक साथ





हिंदू महासभा और कम्युनिस्ट को शुरू से ही एक दुसरे को वैचारिक दॄष्टि से जानी - दुश्मन माना जाता है। लेकिन इस चुनाव में विपक्षी एकता के नाम पर सब एक साथ थे। कम्युनिस्ट,कांग्रेस,लोकदल ही नहीं हिन्दू महासभा के पार्षदों ने भी  भाजपा के खिलाफ संयुक्त प्रत्याशी राकेश अचल को वोट दिया। तमाम प्रलोभनों और दबावों के बावजूद निर्दलीयों सहित विपक्ष के एक भी पार्षद नहीं टूटा।  अचल जी को सभी 19 वोट मिले लेकिन बीजपी के उम्मीदवार भाऊ साहब पोटनीस अपने दल के सभी 25 मत पाकर मेयर निर्वाचित हो गए।







न खुदा ही मिले न बिसाले सनम



राकेश अचल कहते हैं कि उन्होंने मेयर का चुनाव जीत के लिए या किसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति  के लिए नहीं बल्कि विपक्ष की एकजुटता के लिए लड़ा था जिसमे हारना भी लगभग - लगभग तय था सो हारे भी लेकिन इसके चलते मेरी आचरण अखबार से नौकरी जाती रही और इसकी शिकायत कुछ लोगों  ने जनसत्ता में भी कर दी सो वहां से भी बाय - बाय हो गयी।  हालाँकि उसके बाद फिर आचरण सहित अनेक समाचार -पत्रों में कार्यरत रहा।





तब राजनीति अदावत नहीं थी



 



वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल कहते हैं कि वह भाई - चारा का दौर था।  तब निजी सम्बन्ध और राजनीतिक प्रतिबद्धता अलग - अलग रहते थे। हार के बाद भी  सब साथ में मिलकर चाय पीते थे और सब कुछ सामान्य रहता था आज का दौर भयावह है। अब राजनीतिक विरोध निजी विरोध मानकर सामने वाले को निजी स्तर पर टारगेट करने का चलन बढ़ा है।



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