सागर. डॉ. हरिसिंह गौर की आज 152वीं जयंती है। उनके कई परिचय है। वे मशहूर न्यायविद् थे, शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान बहुत बड़ा है और उन्हें एक असाधारण समाज सुधारक के तौर पर भी याद किया जाता है। आइए जानते हैं सागर के सपूत की कहानी.......
अपनी संपत्ति से 2 करोड़ रुपए जुटाए
गौर साहब ने अपने गृह जिले सागर में दूसरी कैम्ब्रिज (Cambridge University) बनाने का सपना देखा था। इसके लिए उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति से 2 करोड़ रुपए जुटाए। इन पैसों से 18 जुलाई 1946 को सागर विश्वविद्यालय (Sagar University) यानी डॉ. हरिसिंह गौर यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई। इसके तीन साल बाद 25 दिसंबर 1949 को उनका निधन हो गया।
गौर साहब और पं. शुक्ल की समाधि एक साथ
गौर साहब के मित्र पंडित रविशंकर शुक्ल (मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री) ने विश्वविद्यालय की स्थापना में उनकी खूब मदद की। विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद गौर साहब संस्थापक कुलपति बने तो पंडित रविशंकर शुक्ल (Ravishankar Shukla) 24 नवंबर 1946 को संस्थापक कुलाधिपति बन गए। वह 30 दिसंबर 1956 तक पद पर रहे। 31 दिसंबर 1956 को उनका दिल्ली में स्वर्गवास हुआ। उनका अस्थि कलश गृह जिला सागर लाया गया। इसी कारण विश्वविद्यालय में गौर साहब की समाधि के पास कुलाधिपति की समाधि भी सादर बनाई गई।
1962 तक गौर साहब की प्रतिमा नहीं थी
सागर को शिक्षा का मंदिर देने वाले महान दानवीर की एक प्रतिमा तक सागर में नहीं थी। यूनिवर्सिटी (Harisingh Gour University) के स्टूडेंट्स ने सागर का दिल कहे जाने वाले तीनबत्ती तिराहे पर डॉ. गौर की प्रतिमा स्थापित करने का संकल्प लिया था। छात्रों ने बूट पॉलिश और मजदूरी कर चंदा जुटाया। इसके बाद 1962 में लोगों और प्रशासन की मदद से तीन बत्ती तिराहे पर अष्ट धातु की प्रतिमा स्थापित की गई।
कैम्ब्रिज-हार्वर्ड की तरह बनाना चाहते थे
गौर साहब (Harisingh Gour special Story) का सपना था कि सागर विवि कैम्ब्रिज-हार्वर्ड जैसी यूनिवर्सिटी बने। लेकिन पैसों की कमी के कारण अच्छे उपकरण और किताबें ही मुश्किल से जुट पाई। यूनिवर्सिटी 63 साल तक स्टेट गवर्मेंट के अधीन थी। इस कारण स्थितियां ज्यादा नहीं बदली। लेकिन 2009 में इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय (Central University) का दर्जा मिला। इसके बाद यूनिवर्सिटी को हर साल 200 करोड़ रुपए का बजट मिलने लगा।
कैम्ब्रिज में रंगभेद का सामना किया
गौर साहब के पिता पुलिस विभाग में कर्मचारी थे। मैट्रिकुलेशन (Entrance Exam) की परीक्षा में अव्वल आने के बाद, उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए कैम्ब्रिज भेजा गया। वहां उन्हें रंगभेद (apartheid) का सामना करना पड़ा। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि वे कविताओं की प्रतियोगिताओं में अव्वल आए, पर रंगभेद की नीति के चलते इन प्रतियोगिताओं के नतीजे रोक लिए गए।
1920 में राजनीति से मोहभंग
लंदन में हरिसिंह (Harisingh Political Carrier) ने कानून की पढ़ाई की और वहीं से डीलिट की डिग्री भी हासिल की। जब दादाभाई नौरोजी, जो ब्रिटेन में भारतीय मूल के पहले सांसद थे, ने संसद का चुनाव लड़ा था तो गौरसाहब ने उनके पक्ष में प्रचार किया था। भारत आने के बाद कुछ महीने के लिए वे डिप्टी कलेक्टर की नौकरी पर रहे। फिर उन्होंने नौकरी छोड़कर वकालत शुरू की।
उन्होंने इलाहाबाद, मध्य प्रांत और कलकत्ता के हाईकोर्ट में वकालत की। 1918 में उन्होंने नागपुर नगरपालिका का चुनाव लड़ा। जीतकर वे अध्यक्ष बने और काफी नाम कमाया। 1920 में उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। तब वे पार्टी के नरम दल के समर्थक थे। 1921 से लेकर 1935 तक हरिसिंह सेंट्रल असेंबली के सदस्य रहे।
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