बगैर ओबीसी आरक्षण के होंगे पंचायत चुनाव, बीजेपी-कांग्रेस बनाएगी आरक्षण को मुद्दा

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Shivasheesh Tiwari
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बगैर ओबीसी आरक्षण के होंगे पंचायत चुनाव, बीजेपी-कांग्रेस बनाएगी आरक्षण को मुद्दा

Bhopal. मप्र में स्थानीय निकाय चुनाव बगैर ओबीसी आरक्षण के होंगे। भले ही सरकार मोडिफिकेशन के लिए फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा रही है लेकिन हकीकत में सरकार खुद मुतमईन नहीं है कि कोर्ट कोई राहत भरा फैसला देगा। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने इस मुद्दे को भुनाने की तैयारियां शुरू कर दी और साथ ही शुरू की है चुनावी तैयारियां।



हर जिले में प्रेस कॉन्फ्रेंस होगी



मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने साफ संकेत दे दिए हैं कि अब चुनाव लड़ना पार्टी के लिए आखिरी विकल्प बचा है इसलिए कार्यकर्ताओं को चुनाव की तैयारियों में जुटने के संकेत दे दिए गए। ये भी कहा गया कि ओबीसी आरक्षण जो खत्म हुआ है। वो कांग्रेस की वजह से हुआ है और उसकी सच्चाई हर जिले में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताई जाए। बीजेपी पहले ही तय कर चुकी है कि ओबीसी वर्ग के 27 फीसदी से ज्यादा  उम्मीदवारों को टिकट दिया जाएगा और मुख्यमंत्री ने पुरजोर तरीके से इस बात को कार्यकर्ताओं के सामने रखा। यानी बीजेपी इस मसले को मुद्दा बनाकर पूरी तरह से भुनाएगी लेकिन कांग्रेस भी पीछे नहीं है। कांग्रेस ने भी चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी है। वचन पत्र की पहली बैठक हुई। साथ ही यूथ कांग्रेस ने महंगाई और बेरोजगारी को लेकर हल्ला बोला यहां भी ओबीसी आरक्षण का मुद्दा नेताओं की जुबां पर रहा। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि पार्टी चुनाव के लिए तैयार है।



ओबीसी का मद्दा आगामी चुनावों में भी गुंजेगा



राज्य निर्वाचन आयोग पहले ही कह चुका है कि जून में चुनाव पूरे करवा दिए जाएंगे। ऐसे में राजनीतिक दलों के पास समय कम बचा है और काम ज्यादा। शायद यही वजह है कि दोनों पार्टियां अब पूरी तरह से चुनावी मोड में है। पार्टियां चुनावी मोड में है और पिछड़े वर्ग की राजनीति परवान पर है। ओबीसी आरक्षण की ऐसे पैरवी हो रही है कि बस चले तो पूरा आरक्षण ओबीसी के चरणों में रख दे। खैर ओबीसी की ये जो राजनीति है वो 2023 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव का भी आधार बनेगी इसमें कोई शक नहीं है। अब आपको बताते है कि आखिरकार कैसे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के एक नारे से पिछड़े वर्ग की राजनीति का उदय हुआ था। हालांकि लोहिया ने राजनीतिक लड़ाई छेड़ी थी लेकिन ये जातीय राजनीति में बदल गई।



संसोपा ने बांधी गाठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ



यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश इन तीनों राज्यों में 1990 के बाद की राजनीति में एक समानता है कि यहां 90 के दशक के बाद कोई भी सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बना। पिछड़ा वर्ग पर आधारित राजनीति तीनों राज्यों में हावी है। देश में पिछड़ा वर्ग की राजनीति एक राजनीतिक लड़ाई से शुरू हुई थी। जब सोशलिस्ट नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने नारा उछाला था कि संसोपा ने बांधी गाठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ।



किस्सा कुछ ऐसा है कि राममनोहर लोहिया आजादी मिलने से एक साल पहले राजनीतिक मतभेद के चलते पंडित नेहरू से अलग हो गए थे। जेपी नारायण, अच्युत पटवर्धन समेत कई नेताओं के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी बनाई। लोहिया जातितोड़ों  आंदोलन चलाते थे पर उनका मानना था कि जबतक दलित और पिछड़ी जाति के लोग सामाजिक और राजनीतिक रूप से बराबरी में नहीं आएंगे तबतक प्रवृति खत्म नहीं होगी। 1963 में वो फर्रूखाबाद से उपचुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। उनका मानना था कि कांग्रेस वोट तो दलित और पिछड़ों से लेती है लेकिन नेतृत्व कुलीन हाथों में है और कम्युनिस्ट भी इसी कैटेगरी में है। 1965 में उन्होंने ये नारा दिया था कि संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ। कांग्रेस के भीतर ही पार्टी नेताओं ने इस नारे को पकड़ा और चौधरी चरण सिंह ने नारे को बुलंद करते हुए यूपी में चंद्रभानु गुप्त की सरकार गिरा दी। इसके बाद बिहार में बदलाव हुआ और फिर ये राजनीति ऐसी बढ़ी की कि कांग्रेस की नौ राज्यों में सरकारें गिर गई। गैरकांग्रेसवाद के नारे को जनसंघ का साथ मिला। 



वीपी सिंह सरकार का वो निर्णय जिससे राजनीति बदली



पंडित दीनदयाल उपाध्याय लोहिया के साथ हो लिए और 1977 में ये क्रम दोहराया गया जब जेपी और नानाजी की जोड़ी बनी थी। पिछड़ो की राजनीति में टर्निंग पॉइंट 1989 रहा। जब मंडल कमीशन की सिफारिशों को वीपी सिंह सरकार ने लागू किया। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में आयोग गठित किया था, जिसने 1931 की जातीय जनगणना को आधार मानकर रिपोर्ट दी कि देश में 52 प्रतिशत आबादी पिछड़ों की है। आरक्षण में 50 प्रतिशत की सीमा को ध्यान में रखते हुए वीपी सिंह सरकार ने 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण का आदेश जारी किया गया। इस आदेश के बाद विरोध हुआ लेकिन देश में पिछड़ा वर्ग की राजनीति का सिक्का चल निकला। 90 के दशक में लालू-मुलायम जैसे नेताओं का जन्म हुआ और ओबीसी की राजनीति की हवा एमपी भी आ पहुंची सभी राज्यों ने मंडल कमीशन के 52 फीसदी आरक्षण को पकड़ा और  लुभाने का खेल शुरू हुआ।



तामिलनाडु और राजस्थान में आरक्षण का दायरा 67 फीसदी तक पहुंच गया। 2018 में कमलनाथ सरकार ने आरक्षण 27 फीसदी किया तो ये भी संविधान में तय 50 फीसदी के दायरे से बाहर निकल गया। ये दायरा तबतक नहीं बढ़ सकता जबतक कि संविधान में संशोधन न लाया जाए। कांग्रेस और बीजेपी दोनों इसबात को जानते हैं लेकिन पिछड़े वर्ग को अपने पाले में लाने की होड़ के चलते हालात इस मुकाम पर पहुंचे है कि आधी को छोड़ पूरी को पावे, आधी रहे ना पूरी पावे। हालांकि लोहिया ने तो ये नारा उछाला था कि इसका असर क्या होगा इसका आंकलन वो नहीं कर पाए कि उन्होंने सामाजिक विमषता के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई छेड़ी थी वो जातीय राजनीति में तब्दील हो जाएगी। हालांकि उन्होंने कहा था कि  लोग मेरी बात सुनेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद।

 


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