Bhopal. मप्र में पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव होंगे लेकिन बगैर ओबीसी आरक्षण के। सुप्रीम कोर्ट ने दो हफ्ते में नोटिफिकेशन जारी करने के लिए कहा। अब बगैर ओबीसी आरक्षण के चुनाव करवाना यानी आ बैल मुझे मार वाली स्थिति है। इसलिए लगे हाथ सरकार ने भी कह दिया है कि वो रिव्यू पिटीशन दायर करेगी। ओबीसी आरक्षण पर जिस तरीके से सियासी घमासान मचा है। दोनों राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं तो ये समझना मुश्किल है कि इस वर्ग का कौन हितैषी है कौन दुश्मन है। मगर ये बात सौ फीसदी सच है कि ओबीसी का साथ पाना हर किसी की ख्वाहिश है। बगैर ओबीसी आरक्षण के चुनाव करवाने का तो कोई सवाल उठता ही नहीं है। लेकिन जानकार मानते हैं कि अब सरकार इस मसले पर बुरी तरह से फंस चुकी है। क्या वाकई में ऐसा है।
विधानसभा में आया था संकल्प
जब सुप्रीम कोर्ट ने पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण देने से इंकार कर दिया था और ओबीसी की सीटों को सामान्य सीटें मानकर चुनाव करवाने के लिए कहा था, तब इस मसले पर जमकर सियासत हुई थी। बीजेपी विधानसभा में संकल्प लेकर आई कि बगैर ओबीसी आरक्षण के चुनाव नहीं करवाए जाएंगे। आरोप-प्रत्यारोप बयानबाजी हुई। क्या-क्या नहीं हुआ। हर किसी ने ओबीसी का खुद को हितैषी बताने में कसर नहीं छोड़ी।
पुनर्विचार याचिका दायर करेगी सरकार
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पांच महीने बाद, एक बार फिर कोर्ट का फैसला आया। कोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग से कहा कि बगैर ओबीसी आरक्षण के चुनाव करवाए जाए। 5 साल में चुनाव करवाना सरकार का संवैधानिक दायित्व है और जैसे ही ये फैसला आया। एकबार फिर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। सरकार ने पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला किया है।
सरकार ने जो रिपोर्ट पेश की वो आधी अधूरी थी
यानी एक बार फिर आरोप-प्रत्यारोप बयानबाजी। जो पांच महीने पहले हालात थे कमोवेश पांच महीने बाद भी सियासत वैसी की वैसी है। हर कोई खुद को ओबीसी हितैषी बताने में जुटा है। लेकिन चूक कहां हुई जो ऐसा फैसला सुप्रीम कोर्ट को देना पड़ा। यही वो सवाल है कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सरकार ने जो रिपोर्ट पेश की वो आधी अधूरी है। इसे समझने की कोशिश करते हैं और इसी से आपको उस सवाल का जवाब मिलेगा कि क्या सरकार इस मसले पर फंस गई है।
दिसंबर में जब सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी वर्ग की सीटों को सामान्य मानते हुए चुनाव करवाने का आदेश दिया था और सरकार से ट्रिपल लेयर सिस्टम से आरक्षण देने को कहा था। इस ट्रिपल लेयर टेस्ट के मुताबिक सरकार को क्या करना था-
1- सरकार को पिछड़े वर्ग की स्थितियों का आंकलन करने के लिए आयोग का गठन करना था, जो सरकार ने किया।
2- आयोग को निकाय वार आवश्यक आरक्षण का अनुपात तय करना, आयोग ने 35 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की।
3- किसी भी मामले में ये आरक्षण SC/ST/OBC पक्ष में आरक्षित कुल सीटों के कुल 50% से अधिक नहीं होगा।
35 फीसदी आरक्षण की सिफारिश
ट्रिपल लेयर टेस्ट की पहली और दूसरी शर्त तो पूरी हुई। आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को दी। लेकिन इस रिपोर्ट को सरकार ने कैबिनेट में मंजूरी नहीं दी यानी आयोग ने जो 35 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी, उसे कैबिनेट को मंजूरी देना जरूरी था। इसके बगैर ही कोर्ट में रिपोर्ट पेश कर दी गई। सरकार ने कोर्ट से और समय मांगा लेकिन कोर्ट ने कहा कि ट्रिपल टेस्ट पूरा करने के लिए और समय नहीं दिया जा सकता। ऐसे में याचिकाकर्ता का आरोप है कि ये चूक है साजिश इसका खुलासा होना चाहिए।
कई सारे मामले कोर्ट में लंबित पड़े
दरअसल ये चूक मानी जा रही है क्योंकि सरकार के पास ट्रिपल लेयर टेस्ट के लिए पर्याप्त समय था। ट्रिपल लेयर टेस्ट की आधी अधूरी रिपोर्ट पेश क्यों की गई ये समझ से परे है। दूसरा नौकरियों में ओबीसी आरक्षण 14 फीसदी मिले या 27 फीसदी इसे लेकर कई सारे मामले कोर्ट में लंबित पड़े है। सरकार यहां भी अपना पक्ष ठीक तरीके से रख नहीं पा रही। इसका नतीजा ये हो रहा है कि इस खेल में लाखों युवा फंस हुए है। भर्तियां अटकी हुई हैं, परीक्षाओं के नतीजे अटके हैं। हर कोई सियासत के इस चक्रव्यूह में उलझ कर रह गया है और इसलिए ओबीसी संगठनों का कहना है कि कोई भी सरकार या राजनीतिक दल ओबीसी हितैषी नहीं है।
ओबीसी आरक्षण प्रदेश की राजनीति का बड़ा मुद्द
पिछली बार जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था तो बीजेपी ने कांग्रेस को घेरा इस बात पर कि वो तो 27 फीसदी आरक्षण देना चाह रही थी। कांग्रेस नेताओं के कोर्ट में जाने से मामला बिगड़ा। लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद उसका पालन तो सरकार को करना था और बीजेपी इसमें नाकाम साबित हुई है। जैसा सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है इसलिए अब कहा जा रहा है कि बीजेपी इस मसले पर बुरी तरह से फंस गई है।
इस मामले में याचिकाकर्ताओं का ये भी कहना है कि कोर्ट ने कभी भी ओबीसी आरक्षण ना देने की बात नहीं की है। कोर्ट ने केवल इतना कहा है कि जो भी आरक्षण दिया जा रहा है या बढ़ाया जा रहा है उसका आधार क्या है। कोर्ट सरकारों से लगातार ये सवाल पूछता रहा है लेकिन इसका लॉजिकल यानी तर्कसम्मत जवाब ना तो बीजेपी के पास ना ही कांग्रेस के पास। कांग्रेस कहती है 52 फीसदी, जबकि पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग की रिपोर्ट में ये आंकड़ा 48 फीसदी सामने आया लेकिन सही आंकड़ा किसी के पास नहीं है।