भोपाल. जब भी कोई बड़ा घटनाक्रम होता है तो सरकारें जांच आयोग का गठन कर देते हैं। न्यायिक आयोग बनाए जाते हैं। ये आयोग इसलिए गठित किए जाते हैं, ताकि जो भी घटनाक्रम हुआ है, उसकी असलियत जनता के सामने आ सकें। आयोग जांच करता है। जांच के बाद आयोग अपनी रिपोर्ट सरकार को देता है। लेकिन उसके बाद क्या होता है..? आज द सूत्र इसी से पर्दा उठा रहा है। असलियत ये है कि आयोग की रिपोर्ट विभागों में धूल खाती है।
पहला मामला- 6 जून 2017, मंदसौर के इतिहास का काला दिन कहा जा सकता है। मंदसौर गोलीकांड के नाम से इस घटना को जाना जाता है। पुलिस फायरिंग में 6 आंदोलनकारी किसानों की मौत हुई थी। इस घटना ने पूरे प्रदेश को दहला दिया था। खूब राजनीति हुई। सरकार ने आनन-फानन में गोलीकांड की जांच के लिए 12 जून 2017 को जांच आयोग का गठन किया। रिटा. जस्टिस जे.के. जैन की अध्यक्षता में गठित इस आयोग को 6 महीने में अपनी रिपोर्ट सरकार को देना थी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को भेज दी। 14 जून 2018 को ये जांच प्रतिवेदन गृह विभाग को भेज दिया गया। उसके बाद से ही ये रिपोर्ट गृहविभाग में धूल खा रही है।
दूसरा मामला- 12 सितंबर 2015 को झाबुआ जिले के पेटलावद में भयानक विस्फोट हुआ था। इसमें सैकड़ों लोगों की मौत हुई। 15 सितंबर 2015 में सरकार ने जांच आयोग का गठन किया। रिटा. जस्टिस आर्येंद्र सक्सेना की अध्यक्षता में जांच हुई। 11 दिसंबर 2015 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट सीएस को सौंप दी। 6 अप्रैल 2016 को रिपोर्ट गृहविभाग पहुंची। अब तक इसमें कोई कार्रवाई नहीं हुई। जबकि पेटलावद विस्फोट के मामले में कोर्ट अपना फैसला इसी मार्च के महीने में सुना चुका है। सभी सातों आरोपियों को बरी कर दिया गया है।
तीसरा मामला- इंदौर में हुआ पेंशन घोटाला। 8 फरवरी 2008 को सरकार ने जांच आयोग गठित किया। जस्टिस एन.के. जैन की अध्यक्षता में गठित आयोग ने जांच की। 15 सितंबर 2012 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। ये रिपोर्ट सामाजिक न्याय विभाग में पड़ी-पड़ी धूल खा रही है।
चौथा मामला- भोपाल यूनियन कार्बाइड जहरीली गैस रिसाव जांच आयोग। 25 अगस्त 2010 को आयोग का गठन किया गया। रिटा. जस्टिस एस.एल. कोचर की अध्यक्षता में जांच हुई। 24 फरवरी 2015 में आयोग ने रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट गैस राहत विभाग में धूल खा रही है।
ऐसे ही भिंड में हुई गोलीबारी की घटना के लिए 2012 में आयोग का गठन किया था। आयोग ने 2017 में रिपोर्ट सौंपी और 2018 से गृह विभाग में रिपोर्ट पड़ी हुई है। ऐसे ही ग्वालियर के गोसपुरा में पुलिस मुठभेड़ के मामले में गठित जांच आयोग की रिपोर्ट गृह विभाग में धूल खा रही है।
कहने का मतलब ये है कि ये तमाम बड़ी घटनाएं थी, जिन्होंने प्रदेश में बवाल मचाया। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप हुए और इन घटनाओं की निष्पक्ष जांच हो इस के लिए, इन आयोगों का गठन किया गया था। लेकिन इसका नतीजा शून्य है। क्योंकि नियम है कि आयोग की रिपोर्ट जब तक विधानसभा के पटल पर नहीं रखी जाती। तब तक ये सार्वजनिक नहीं हो सकती और विधानसभा के पटल पर रखने के बाद सरकार को ये भी बताना पड़ता है कि जिस मामले में आयोग का गठन किया गया था। उसे लेकर सरकार ने क्या कार्रवाई की और आयोगों की रिपोर्ट अब तक विधानसभा के पटल पर नहीं रखी गई। इसका मतलब ये गोपनीय रिपोर्ट है। किसी को कुछ नहीं पता कि इतनी बड़ी बड़ी घटनाएं हुई है, उनमें कौन दोषी है। किसके खिलाफ आयोग ने कार्रवाई की अनुशंसा की है।
जब किसी आयोग का गठन किया जाता है, तो आयोग के अध्यक्ष को सारी सुविधाएं मिलती हैं। मसलन स्टाफ, कमरा, गाड़ी, स्टेशनरी और तमाम खर्चे शामिल होते हैं। कुल मिलाकर एक आयोग काम करता है तो महीने में कम से कम 5 लाख रुपए का खर्च होता है। आयोग को अपनी रिपोर्ट छह महीने या साल भर में देनी होती है। यानी इस तरह से देखे तो एक आयोग के गठन से लेकर रिपोर्ट पेश करने तक में 25 से 30 लाख रुपए खर्च होते हैं। इसके बाद भी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होती यानी जनता का पैसा बर्बाद किया जाता है।
अब यहां पर सवाल ये भी उठता है कि क्या केवल सरकार दिखावे के लिए ऐसे आयोगों का गठन करती है और जो बेहद संवेदनशील मुद्दे है, उनकी रिपोर्ट सार्वजनिक न करना, ये सवाल खड़े करता है कि सरकार दोषियों को बचाने की कोशिश कर रही है। आखिरकार दोषियों को क्यों बचाया जा रहा है और जब बचाना है तो फिर आयोग का गठन कर क्यों जनता का पैसा बर्बाद किया जा रहा है।