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देव श्रीमाली
Gwalior. भारतीय जनता पार्टी में मेयर के टिकटों को लेकर घमासान जारी है। सबसे बड़ी दिक्कत ग्वालियर - चम्बल अंचल में आ रही है। यह भाजपा के प्रेक्षकों के लिए ही नहीं बल्कि पार्टी के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक के लिए पहला अनुभव है क्योंकि अब तक सबसे पहले इसी क्षेत्र के टिकट तय होते थे और घोषणा से पहले ही सभी स्थानीय कार्यकर्ताओं को इसका पता भी चल जाता था लेकिन इस बार सबसे ज्यादा द्वंद्व ग्वालियर और मुरैना नगर निगमों के नाम फाइनल करने में हो रहा है। इसकी वजह सिंधिया फैक्टर भी माना जा रहा है। सिंधिया ने अभी जुबान नहीं खोली है और इसलिए बाकी भी अपने पत्ते नहीं खोल पा रहे।
पहले कृष्ण कृपा से तय हो जाते थे नाम
ग्वालियर जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी का पार्टी के शैशवकाल से ही गढ़ रहा है। भाजपा के पितृ पुरुष कुशाभाऊ ठाकरे हों, प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी हों, नारायण कृष्ण शेजवलकर हों या फिर मामा मानिकचंद वाजपेयी जैसे राष्ट्रवाद के थिंक टैंक सब का ज्यादातर समय ग्वालियर में ही कटा। जनसंघ का जन्म ग्वालियर में ही हुआ और जब भारतीय जनता पार्टी बनी तो इसका चार्टर भी नारायण कृष्ण शेजवलकर के घर ' कृष्ण - कृपा " में ही लिखा गया सो शुरूआती दौर से ही नयी सड़क स्थित शेजवलकर का आवास ही पार्टी के ज्यादातर निर्णयों का केंद्र रहता था। नब्बे के पहले तक लोकसभा से लेकर विधानसभा और पार्षद तथा मेयर के टिकट का फैसला पार्टी के नेता यहीं बैठकर कर लेते थे।
पिछले चुनाव तक भी फैसला आसान था
ग्वालियर में हालांकि समय समय पर कई अन्य क्षत्रप पैदा हुए यानि एक चुनाव के समय प्रभात झा प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और पार्टी ने उनकी राय मानी। समीक्षा गुप्ता को टिकट दिया। उस समय यह सीट पिछड़ी महिला के लिए आरक्षित थी। टिकट को लेकर कोई जद्दोजहद नहीं हुई। इससे पहले और इसके बाद विवेक शेजवलकर को दो बार टिकट दिया। वह नाम संघ ने तय किया और आसान फैसला हो गया। इसके पहले अरुणा सैन्या , पूरन सिंह पलैया जैसे फैसले नरेंद्र सिंह तोमर ने स्थानीय नेताओं से सलाह करके यहीं ले लिए थे और उससे पहले के फैसले कृष्णकृपा में बैठक कर हो जाते थे।
राजमाता ने कभी नहीं किया हस्तक्षेप
1967 में राजमाता विजया राजे सिंधिया ने कांग्रेस की द्वारिका प्रसाद मिश्रा की सरकार गिरा दी थी और अपने समर्थक विधायकों के साथ जनसंघ में शामिल हो गयीं थी। उनके सहयोग से ही प्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी संविद सरकार का गठन हुआ जिसमें विंध्य के गोविन्द नारायण सिंह के मुख्यमंत्रित्व में सरकार गठित हुई। हालांकि आम चुनाव में यह सरकार तो चली गयी लेकिन राजमाता सिंधिया सदैव के लिए जनसंघ - भाजपा की हो गयीं। भाजपा में उनका बड़ा मान -सम्मान था लेकिन ग्वालियर नगर निगम के चुनावों में कभी उन्होंने मेयर पद के लिए कोई नाम नहीं सुझाया और भाजपा नेता सांगठनिक स्तर पर आसानी से प्रत्याशियों का चयन करते रहे।
इस बार सिंधिया फेक्टर भी
लेकिन इस बार भाजपा में प्रत्याशी का चयन कंटकाकीर्ण है। इसकी अनेक वजह हैं। एक तो भाजपा में भी इस समय ग्वलियर से बड़े कद वाले नेताओं की भरमार है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह अब राष्ट्रीय नेता है और पिछले चुनाव तक निर्णय के सारे सूत्र उनके इर्द -गिर्द घूमते थे। अंचल से एक बड़ा नाम है वीडी शर्मा का। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शर्मा मूलत : मुरैना जिले से है जहां के सांसद नरेंद्र तोमर हैं सो दोनों के बीच प्रत्याशी चयन में जातिगत रूप से भी टकराव की संभावना है और गुटीय रूप में।
शर्मा ग्वालियर में भी अपने पैर पसारना चाहते हैं। एक अन्य क्षत्रप हैं विवेक नारायण शेजवलकर। उनके पिता दो बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा के सदस्य रहने के साथ पांच बार मेयर रह चुके थे। स्वयं विवेक नारायण शेजवलकर दो बार मेयर रहने के बाद अभी सांसद है। वे संघ के नजदीक है। एक अन्य क्षत्रप हैं हिंदुत्व के चेहरा और फायरब्रांड नेता जयभान सिंह पवैया। पवैया बजरंग दल के राष्ट्रीय संयोजक ,सांसद और प्रदेश में उच्च शिक्षा मंत्री रह चुके हैं। वे विश्व हिन्दू परिषद् में अच्छी पैठ रखते हैं और पार्टी द्वारा बनायी गयी कोर कमेटी में शामिल हैं।
ख़ास बात ये है कि इन लोगों के आपसी रिश्ते भी सहज नहीं है लेकिन इस बार एक अन्य फैक्टर सिंधिया फैक्टर भी जुड़ गया है। सिंधिया अपने विधायक और समर्थकों के साथ भाजपा में आये है और वे खासे सक्रिय भी हैं। पवैया उनके धुर विरोधी रहे है और सिंधिया के पहले तक तोमर अंचल में भाजपा के एकछत्र बड़े नेता थे लेकिन अब वो बात नहीं होने से असहज हैं। शेजवलकर से सिंधिया के रिश्ते अपनत्व के नहीं है। बस यही वजह है कि ये सब एक साथ हो जाएं क्योंकि सिंधिया का प्रवाह रोकना है। यही वजह है कि न केवल ग्वालियर बल्कि मुरैना नगर निगम सीट पर मेयर उम्मीदवार को लेकर पेंच फंसा हुआ है।
इनको लेकर विचार
अगर सब सामान्य रहता तो भाजपा की तरफ से मेयर का नाम लगभग फाइनल माना जा रहा था यह नाम था महिला आयोग की सदस्य रहीं श्रीमती प्रमिला वाजपेयी का। वे संघ की पहली पसंद थी लेकिन कोरोना में उनका दुखद असामयिक निधन हो गया बाद एक मजबूत नाम श्रीमती सुमन शर्मा का है। वे भाजपा और महिला मोर्चा में अनेक पदों पर रह चुकीं है। जयपुर विवि की अध्यक्ष रह चुकी सुमन के ससुर डॉ धर्मवीर भाजपा से मेयर और विधायक रह चुके है।
उनके पति यशवीर शर्मा भी भाजपा के सक्रिय नेता थे लेकिन विगत दिनों उनका भी दुखद निधन हो गया। शेजवलकर,पवैया और अनूप मिश्रा उनके नाम को आगे बढ़ा सकते है। भाजपा जिन नामों पर विचार कर रही है उनमे एक नाम डॉ वीरा लोहिया का है। वीरा एक बार नगर निगम में पार्षद भी रह चुकीं हैं। उनके पति डॉ श्रीप्रकाश लोहिया संघ से जुड़े हैं और लोहिया परिवार पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा का ख़ास माना जाता है। यह दम्पत्ति एक निजी हॉस्पिटल भी चलाता है।
इनके अलावा एक नाम श्रीमती माया सिंह का है भाजपा में जिले से लेकर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर के अनेक पदों पर रही माया सिंह राज्यसभा की सदस्य रहीं और शिवराज सरकार में नगरीय प्रशासन मंत्री रह चुकीं हैं। उनके पति ध्यानेन्द्र सिंह भी मंत्री रह चुके हैं। वे स्व माधव राव सिंधिया की मामी है और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी। 2018 में मंत्री होते हुए भी भाजपा ने उनका टिकट काट दिया था तब से वे घर बैठी है और मेयर पद की दावेदार हैं।
उनके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है पार्टी की गाइडलाइन। इसके अनुसार पार्टी 70 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों को टिकट नहीं देगी जबकि माया सिंह ये सीमा पार कर चुकीं हैं। सूत्रों की मानें तो ज्योतिरादित्य सिंधिया शनिवार को बैठक में पहुंचे उससे पहले ही जयभान सिंह पवैया बैठक छोड़कर बाहर आ गये और लखनऊ रवाना हो गए। सिंधिया कल सबसे मिले और आज मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से भी भेंट की लेकिन अभी तक वे सिर्फ सुन रहे हैं उन्होंने कोई नाम नहीं बताया। भाजपा नेता चाहते हैं कि ग्वालियर जैसे अपनी परम्परागत सीट पर किसी ख़ालिश सिंधिया समर्थक को टिकट न दिया जाए। अगर सिंधिया कोई नाम आगे बढ़ाते हैं और दिल्ली से दबाव डलवाते हैं तो भाजपा नेता माया सिंह का नाम आगे बढ़ा सकते हैं ताकि भाजपा के खाते में ही टिकट भी रहे और माया सिंह का नाम होने से सिंधिया उनका विरोध भी नहीं कर पाएंगे।