News Strike : देश की 18वीं लोकसभा में स्पीकर के चुनाव के जरिए जो इतिहास रचा गया, मध्यप्रदेश की विधानसभा पहले ही उसकी साक्षी बन चुकी है। मध्यप्रदेश विधानसभा में ऐसा ही इतिहास पहले भी रचा जा चुका है। तकरीबन छह साल पहले मध्यदेश की विधानसभा में जो घटनाक्रम हुआ था, वही आज हूबहू लोकसभा में दोहराया गया है। स्पीकर पद का चुनाव लोकसभा में पहली बार हुआ है, लेकिन इसकी जरूरत क्या थी। आज भी और तब भी जब स्पीकर का चुनाव मध्यप्रदेश की विधानसभा में हुआ। ये जानते हुए भी कि हार तय है राहुल गांधी ने ये दांव क्यों खेला और राजनीति में पगे और तीन बार सीएम रह चुके शिवराज सिंह चौहान ने छह साल पहले ये दांव क्यों खेला था। कमलनाथ का एक फैसला कैसे आज तक कांग्रेस पर भारी पड़ रहा है। वो सब विस्तार से जान लीजिए।
ओम बिरला दोबारा स्पीकर की आसंदी पर काबिज हुए
लोकसभा का घटनाक्रम आप में से बहुत से लोगों ने कल से लेकर आज तक पूरी तरह फॉलो किया होगा। जब बात स्पीकर पद की आती है तब विपक्ष यानी कि इंडिया गठबंधन डिमांड करता है कि डिप्टी स्पीकर का पद उनके खाते में जाना चाहिए। एनडीए और इंडिया में बात नहीं बनी और मामला चुनाव तक पहुंच गया। लोकसभा के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि स्पीकर पद के लिए चुनाव हुआ। ध्वनिमत से ओम बिरला की जीत हुई और वो दोबारा आसंदी पर काबिज हुए। यहां एक बात और बता दूं कि सदन में बीजेपी की सरकार रहते हुए वो पहले ऐसे नेता हैं जिन्हें लगातार दूसरी बार ये पद संभालने का मौका मिला है।
किस्सा जब कमलनाथ मध्यप्रदेश के मुखिया बने...
खैर अब बात पहले मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव की करते हैं। कुछ छह साल पहले का इतिहास खंगालते हैं। पर ये ध्यान रखिए कि बात भले ही छह साल पुरानी है, लेकिन इसका खामियाजा कांग्रेस आज तक सदन में भुगत रही है। इसलिए इस इतिहास को जान लेना जरूरी है। ये राजनीतिक उठापटक से जुड़ा किस्सा उस समय का है जब कमलनाथ मध्यप्रदेश के मुखिया बने थे और करीब तीन बार सीएम रहने के बाद शिवराज सिंह चौहान को विपक्ष में बैठना पड़ा था। उस वक्त मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी स्पीकर पद को लेकर खूब खींचतान हुई थी। बस यूं समझ लीजिए कि जिस जगह आज पीएम मोदी हैं उस जगह कमलनाथ थे और जिस जगह राहुल गांधी हैं उस जगह शिवराज सिंह चौहान थे। ये किस्सा मध्यप्रदेश की पंद्रहवी विधानसभा के पहले सत्र से ही जुड़ा है। जो हमेशा एक इतिहास की तरह ही दर्ज रहने वाला है। विधानसभा के 52 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब स्पीकर का चयन आम सहमति से नहीं हुआ बल्कि, उसके लिए वोटिंग करानी पड़ी थी। जिसके बाद कांग्रेस विधायक एनपी प्रजापति स्पीकर चुने गए थे।
बात इतनी बढ़ी कि चुनाव तक पहुंच गई...
कांग्रेस की सरकार बनते ही ये तय था कि स्पीकर का पद कांग्रेस के खाते में जाएगा। जिसके बाद बीजेपी की ओर से ये शर्त रखी गई कि डिप्टी स्पीकर उनकी पार्टी का होगा, लेकिन कमलनाथ नहीं माने। बात इतनी बढ़ी कि चुनाव तक पहुंच गई। दोनों ही दलों का संख्या बल ऐसा था कि बस हार या जीत के मुहाने पर खड़े हों। 2018 के चुनाव के बाद कांग्रेस को मिले थे 114 नंबर और बीजेपी के पास थे 109 विधायक। इसके अलावा 4 निर्दलीय, 2 बीएसपी और एक सपा के विधायक सदन में मौजूद थे। ये चुनाव सिर्फ स्पीकर पद के लिए ही नहीं हुआ था अपने अपने दल के विधायकों की निष्ठा को मापने का भी दोनों दलों के पास ये एक मुफीद जरिया था। क्योंकि ये सुगबुगाहटें तेज थीं कि सरकार बनाने के लिए बीजेपी हॉर्स ट्रेडिंग का तरीका अपना सकती है। यानी कि विधायकों की खरीद फरोख्त के बाद बीजेपी खुद सरकार बना सकती है। हालांकि, बीजेपी ने ये काम किया जरूर, लेकिन 2020 में। वो एक अलग सियासी किस्सा है। जिसे आप सब बखूबी जानते ही होंगे। फिलहाल हम विधानसभा की चर्चा दोबारा करते हैं।
ट्राइबल कैंडिडेट को उतारना बीजेपी का बड़ा सियासी दांव था
हार के बावजूद बीजेपी जिद पर अड़ी रही और कांग्रेस के स्पीकर उम्मीदवार के सामने अपना उम्मीदवार भी उतारा। उस वक्त बीजेपी ने कुंवर विजय शाह को मैदान में उतारा और कहा कि उनकी तरफ से एक आदिवासी चेहरा स्पीकर पद के लिए मैदान में है। एक ट्राइबल कैंडिडेट को मैदान में उतारना भी बीजेपी का बड़ा सियासी दांव ही था। इसे एक बार फिर आप लोकसभा के ताजा घटनाक्रम से रिलेट कर सकते हैं। बीजेपी के उम्मीदवार को टक्कर देने के लिए इंडिया ने के सुरेश को चुना और उन्हें दलित फेस कर प्रमोट किया। यही दांव उस वक्त बीजेपी ने मध्यप्रदेश में चला था और एक आदिवासी चेहरे को स्पीकर पद के लिए आगे किया था। संख्या बल के आधार पर प्रजापति की जीत तय होनी चाहिए थी उसके बावजूद सदन में दिनभर नाटकीय घटनाक्रम जारी रहा। सबसे पहले चार विधायकों ने स्पीकर पद के लिए एनपी प्रजापति के नाम का प्रस्ताव रखा। इसके बाद बीजेपी ने कुंवर विजय शाह के नाम का प्रस्ताव रखने की पहल की, लेकिन उस समय के प्रोटेम स्पीकर दीपक सक्सेना ने कहा कि पहले इन चार प्रस्तावों पर चर्चा होगी। उसके बाद ही जरूरत पड़ने पर बीजेपी के प्रस्ताव की ओर बढ़ा जाएगा।
हंगामे के चलते तीन बारसदन की कार्यवाही स्थगित हुई
बीजेपी के विधायकों को प्रोटेम स्पीकर का सुझाव पसंद नहीं आया। इसे उन्होंने डेमोक्रेसी का अंत करार दिया और कुछ नारे लगाते हुए गर्भग्रह तक पहुंच गए। इस हंगामे के चलते करीब तीन बार, दस-दस मिनट के लिए सदन की कार्यवाही स्थगित भी हुई। इसके बाद शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि विपक्ष यानी कि उनकी पार्टी सदन से वॉकआउट कर रही है। बीजेपी के वॉकआउट के बाद प्रोटेम स्पीकर ने एनपी प्रजापति की जीत डिक्लेयर करते हुए उन्हें विधानसभा का नया स्पीकर घोषित कर दिया, लेकिन ये घटनाक्रम इतने पर ही रुकने वाला नहीं था। बीएसपी के तत्कालीन विधायक संजीव सिंह ने सभी वोट्स अलग-अलग बताने की डिमांड कर डाली। उनकी मांग पर स्पीकर तैयार हुए और बताया कि सदन में जो विधायक मौजूद थे उनमें से 120 ने प्रजापति के नाम पर वोट किया है। ये संख्या कांग्रेस के विधायकों की संख्या से छह ज्यादा थी।
1985 के बाद पहली बार विधानसभा में स्पीकर का चुनाव...
- 2018 में बनी पंद्रहवीं विधानसभा का ये सत्र कई मायनों में एतिहासिक था। पहला इतिहास तो यही था कि 1985 के बाद पहली बार विधानसभा में स्पीकर के पद के लिए चुनाव हुआ।
- 1990 में जब बीजेपी की सरकार काबिज थी। उस वक्त सीएम थे सुंदर लाल पटवा। उन्होंने ही ये व्यवस्था शुरू की थी कि सदन में डिप्टी स्पीकर का पद अपोजिशन को दिया जाएगा। उसके बाद से लगातार 2018 तक ये परंपरा जारी रही, लेकिन कमलनाथ की सरकार बनते ही सदन में ये व्यवस्था बदल दी गई।
- सदन में डिप्टी स्पीकर का जो पद होता है उसे कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा मिलता है। ये अपोजिशन पार्टी ही तय करती है कि उनकी ओर से डिप्टी स्पीकर कौन होगा। सदन की कार्यवाही के दौरान अगर स्पीकर किसी वजह से कार्यवाही में मौजूद नहीं होते। तब सदन के संचालन की जिम्मेदारी डिप्टी स्पीकर की होती है।
- अब जब से डिप्टी स्पीकर की व्यवस्था खत्म हुई है तब से सदन के संचालन का जिम्मा सभापति तालिका के पास होता है। अध्यक्ष के अवकाश पर होने की स्थिति में सभापति तालिका का एक सदस्य सदन का संचालन करता है। इस सभापति तालिका में करीब पांच लोग होते हैं। जिनमें से किसी एक को ये जिम्मेदारी सौंपी जाती है।
ये सदन के सदस्यों को तौलने के लिए भी एक कदम था
अब बहुत संक्षेप में ये बता देता हूं कि संख्या बल कम होने के बावजूद तब शिवराज सिंह चौहान और आज राहुल गांधी ने ये रिस्क क्यों लिया। बात सिर्फ हार जीत की नहीं थी। ये सदन के सदस्यों को तौलने के लिए भी एक कदम था। अभी लोकसभा में गठबंधन सरकार है और विपक्ष में भी गठबंधन ही है। ये गठबंधन कितना मजबूत है और इसके दम पर आगे कितने दांव लगाए जा सकते हैं।
ये समझने के लिए ये रणनीतिक तैयारी की गई। ठीक इसी तरह छह साल पहले शिवराज सिंह चौहान और कमलनाथ ये तौल रहे थे कि उनके साथ कौन-कौन हैं और क्या सदन में कोई कमजोर कड़ी हो सकती है। हालांकि, उस दिन तो कोई कमजोर कड़ी साबित नहीं हुआ, लेकिन 2020 आते आते कड़ियां एक-एक कर कमजोर पड़ती गईं। आज तक कांग्रेस वापसी के लिए तरस रही है, लेकिन इस फैसले का खामियाजा कुछ यूं भुगता कि सत्ता में वापसी के बाद बीजेपी की सरकार ने 1990 के अपनी ही सरकार के फैसले को पलट दिया और अब विपक्ष में बैठी कांग्रेस को डिप्टी स्पीकर का पद मिलना खत्म हो चुका है।
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