News Strike : बचपन में एक पहेली आपने भी कई बार पूछी होगी या आपसे पूछी गई होगी। पहेली थी कटोरे में कटोरा बेटा बाप से भी गोरा, बोलो क्या। हां जानता हूं आपमें से बहुतों ने सही जवाब भी दिया है। पर शर्त के साथ कह सकता हूं इन दिनों ये पहेली जिस नए फॉर्म में वायरल हो रही है, उसका जवाब कम ही लोगों को पता होगा। पहेली है, कोटे में कोटा। अब तक कोटा या आरक्षण तो आपने बहुत बार सुना होगा। अब ये कोटे में कोटा क्या बला है। ये बहुत से लोग जानना चाहते होंगे। आपको विस्तार से और आसान भाषा में समझाते हैं कि आरक्षण में ये नई व्यवस्था क्या है। इसके सामाजिक पहलू क्या हैं और राजनीतिक पहलू क्या हैं। वैसे एक बात बता दें कोटे में कोटा, आम लोगों से ज्यादा राजनीतिक दलों के लिए पहेली बना हुआ है जो इस पर अब तक चुप्पी साधे हुए हैं।
7 जजों की बैंच ने 20 साल पुराने फैसला पलटा
सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बैंच ने 20 साल पुराने अपने ही फैसले को पलट दिया है। शीर्ष अदालत ने अब कोटे में कोटे को मंजूरी दे दी है। कोटे में कोटे का मतलब क्या हुआ ये पहले आसान भाषा में समझ लीजिए। सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के बाद अब राज्य सरकारें एससी की उन जातियों को चिन्हित कर सकती हैं जो सामाजिक और शिक्षा के आधार पर दूसरी एससी जातियों से ज्यादा पिछड़ी हुई हैं। ऐसी जातियों को आरक्षण का ज्यादा फायदा भी मिल सकता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि सभी अनुसूचित जातियां और जनजातियां एक समान वर्ग नहीं है। इसके अंदर एक जाति दूसरे से ज्यादा पिछड़ी हो सकती है इसलिए उनके उत्थान के लिए राज्य सरकार सब-क्लासिफिकेशन कर अलग से आरक्षण दे सकती है। इसके साथ ही अदालत ने एससी, एसटी वर्ग के आरक्षण से क्रीमीलेयर को चिह्नित कर बाहर करने की जरूरत पर भी जोर दिया है।
फैसले को राज्य सरकारें किस रूप में अपनाती हैं
ये फैसला सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ ने 6-1 के बहुमत से सुनाया है। इस बैंच में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मित्तल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं। जिन्होंने दो दर्जन याचिकाओं को देखा सुना और फिर ये फैसला लिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के बाद बीस साल पुराने पांच न्यायाधीशों के ईवी चिनैया (2004) मामले में दी गई व्यवस्था को गलत ठहरा दिया है। ईवी चिनैया फैसले में पांच जजों ने कहा था कि एससी, एसटी एक समान समूह वर्ग हैं और इनका उपवर्गीकरण नहीं हो सकता। इस फैसले को राज्य सरकारें किस रूप में अपनाती हैं। उस पर निर्भर करेगा कि किस जाति पर उसका क्या असर पड़ता है। मसलन अगर कोई राज्य सरकार एससी की किसी जाति को ज्यादा जरूरतमंद मानती है और उसे ही सौ प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला करती है। तो बाकी जातियां अपने आप आरक्षण का लाभ लेने से बाहर हो जाएंगी, लेकिन ऐसा कोई भी प्रावधान करने से पहले भी एक शर्त है। कोटे में कोटा लागू करने से पहले राज्य सरकारों के पास पूरा डेटा होना चाहिए ये डेटा भी पूरी तरह से जमीनी सर्वे के आधार पर तैयार होना जरूरी है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ बातें पूरी तरह से स्पष्ट कर दीं हैं।
फैसले की अहम बातें...
-
उपवर्गीकरण वाली जातियों को सौ फीसदी आरक्षण नहीं दिया जा सकता
-
संविधान पीठ ने एससी-एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान के लिए नीति बनाने को कहा
-
वर्गीकरण तर्कसंगत आधारों पर होना चाहिए
-
कम प्रतिनिधित्व साबित करनेवाले आंकड़ों को इकट्ठा करने की जरूरत
-
ज्यादा जरूरतमंद साबित करने वाले आंकड़ों को एकत्र करने की भी जरूरत
अब बात करते हैं फैसले के सामाजिक पहलू पर। ये शिकायतें बहुत बार आई हैं कि आरक्षण का फायदा किसी एक राज्य में किसी एक जाति को ज्यादा मिल जाता है और दूसरी को कम।
बात करें आंध्रप्रदेश की तो यहां SC समुदाय की दो जातियां हैं, मदिगा और माला। मदिगा समुदाय ये शिकायत करता रहा है कि आरक्षण का ज्यादातर फायदा माला समुदाय को ही मिलता रहा है। आंध्रप्रदेश में ही 1997 में गठित जस्टिस पी रामचंद्र राजू आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि आरक्षण का लाभ मुख्य रूप से SC वर्ग के एक खास समुदाय को मिला है। आयोग ने SC वर्ग को चार श्रेणियों में विभाजित करने की सिफारिश भी की थी। इसके बाद साल 2000 में सरकार ने चार अलग-अलग समूह बनाकर आरक्षण में उनकी हिस्सेदारी भी तय की थी। इसी व्यवस्था को 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया था। जिसे ईवी चिन्नैया मामले के नाम से जाना जाता है।
इस मामले पर अलग-अलग समय पर अलग-अलग राज्यों में कमेटी या आयोग का गठन भी हुआ है। जिनकी रिपोर्ट भी कुछ इसी तरह अनइवन डिस्ट्रीब्यूशन की तरफ इशारा करती है।
उत्तर प्रदेश में 2001 में गठित हुकुम सिंह समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि नौकरियों में सबसे ज्यादा फायदा यादवों को हुआ है।0 समिति ने SC/OBC सूची का उप-वर्गीकरण करने की सिफारिश की थी।
महाराष्ट्र में 2003 में गठित लाहुजी साल्वे आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि जाति पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर माने जाने वाले मांग समुदाय को आरक्षण का पर्याप्त लाभ नहीं मिला है।
कर्नाटक में 2005 में गठित जस्टिस एजे सदाशिव पैनल ने अपनी रिपोर्ट में 101 जातियों को चार श्रेणियों में बांटने और प्रत्येक श्रेणी को SC आरक्षण का 15 प्रतिशत हिस्सा देने की सिफारिश की थी।
बिहार में 2007 में महादलित पैनल ने SC सूची में शामिल 18 जातियों को अत्यंत कमजोर जातियों के रूप में शामिल करने की सिफारिश की थी।
इसी साल राजस्थान में जस्टिस जसराज चोपड़ा समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गुर्जर समुदाय अत्यंत पिछड़ा हुआ है और इसे OBC को मिलने वाली सुविधाओं से बेहतर सुविधाएं दी जानी चाहिए।
तमिलनाडु में 2007 में जस्टिस एमएस जनार्दनम पैनल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अरुंधतियार समुदाय के लिए आरक्षण में अलग से प्रावधान किए जाने चाहिए।
कर्नाटक में 2017 में के रत्ना प्रभा समिति की सिफारिशों के आधार पर 2018 में एक कानून बनाया गया।
अनुसूचित जातियों से जुड़े संगठन इस फैसले से खुश नहीं
एक मोटे अनुमान के मुताबिक इस फैसले से पंजाब के वाल्मीकि और मजहबी सिख, आंध्र प्रदेश के मदिगा, बिहार के पासवान, उत्तर प्रदेश के जाटव और तमिलनाडु के अरुंधतियार जैसी कई अनुसूचित जातियों को फायदा होगा। इसके बावजूद अनुसूचित जातियों से जुड़े संगठन इस फैसले से खुश नहीं है। इस फैसले को वो समुदाय में भेदभाव पैदा करने वाला फैसला बता रहे हैं। अंदरखाने की खबर ये है कि कुछ संगठन इस मामले पर बड़ा प्रदर्शन करने की तैयारी में भी है। ये आंदोलन भी वैसा ही होगा जैसा 2018 में एट्रोसिटी एक्ट के खिलाफ हुआ था। हालांकि, सारे सामाजिक संगठन भी इस मुद्दे पर एकजुट नहीं हो सके हैं। कांग्रेस बीजेपी जैसे राजनीतिक दल तो फिलहाल इस पर शांत हैं। शायद इस फैसले के प्रोज एंड कॉन्स का पूरा आकलन कर रहे हैं, लेकिन राजनेताओं से इस फैसले से असहमती जताई है। मायावती, चिराग पासवान, रामदास आठवले इस कोटे में कोटे पर असहमती जता चुके हैं।
कोटे में कोटे के इस प्रावधान को समझना जितना मुश्किल है. उसे लागू करना भी उतना ही मुश्किल है। क्योंकि राज्य सरकारों को भी इसे लागू करने से पहले तगड़ा होमवर्क करना होगा। विरोध तो जायज है और होगा भी। बड़े राजनीतिक दल इस पर क्या रुख अपनाते हैं। वो भी काफी मायने रखेगा।
thesootr links
-
छत्तीसगढ़ की खबरें पढ़ने यहां क्लिक करें