डोंगरगढ़ माँ बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट चुनाव से पहले सियासी घमासान,कोर्ट के आदेश को लेकर हंगामा

छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में स्थित माँ बम्लेश्वरी मंदिर, जो केवल आस्था का केंद्र ही नहीं बल्कि स्थानीय राजनीति का भी प्रभावशाली मंच बन चुका है, वहां अब ट्रस्ट समिति चुनाव से पहले सियासी घमासान तेज हो गया है।

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Harrison Masih
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Dongargarh Maa Bamleshwari Temple Trust elections uproar over court order
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छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ में स्थित माँ बम्लेश्वरी मंदिर, जो केवल आस्था का केंद्र ही नहीं बल्कि स्थानीय राजनीति का भी प्रभावशाली मंच बन चुका है, वहां अब ट्रस्ट समिति चुनाव से पहले सियासी घमासान तेज हो गया है।

शुक्रवार रात ट्रस्ट कार्यालय छिरपानी में हंगामे की स्थिति बन गई, जब पूर्व अध्यक्ष नारायण अग्रवाल और पूर्व मंत्री नवनीत तिवारी कोर्ट आदेश के साथ पहुंचे, लेकिन उन्हें कार्यालय में प्रवेश नहीं मिला और आवेदन लेने से इनकार कर दिया गया।

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क्या है मामला?

पूर्व अध्यक्ष नारायण अग्रवाल का दावा है कि उन्हें ट्रस्ट की सदस्यता से अवैध रूप से हटाया गया था, जिसे पंजीयक (Registrar) ने कोर्ट आदेश के आधार पर रद्द करते हुए बहाल कर दिया है। वे उसी आदेश के साथ ट्रस्ट कार्यालय पहुंचे थे, ताकि आगामी चुनावों में नामांकन प्रक्रिया में शामिल हो सकें।

लेकिन ट्रस्ट अध्यक्ष मनोज अग्रवाल ने न केवल उनका आवेदन लेने से मना कर दिया, बल्कि यह भी कहा कि ट्रस्ट किसी भी कोर्ट आदेश की अवहेलना नहीं कर रहा, बल्कि कानूनी प्रक्रिया के अनुसार ही आगे बढ़ेगा। मनोज अग्रवाल ने इसे राजनीतिक साजिश बताते हुए, पूर्व ट्रस्ट नेतृत्व द्वारा ट्रस्ट की छवि खराब करने का प्रयास करार दिया।

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मंदिर ट्रस्ट चुनाव और राजनीति का गठजोड़

डोंगरगढ़ का माँ बम्लेश्वरी मंदिर, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं, उसका ट्रस्ट वित्तीय और सामाजिक रूप से बेहद प्रभावशाली है। यही कारण है कि हर चुनाव से पहले यहां सदस्यता, नियुक्तियों और अध्यक्ष पद को लेकर खींचतान आम हो जाती है।

सूत्रों के अनुसार, ट्रस्ट चुनाव में शामिल दो प्रमुख पैनल लाखों रुपये प्रचार-प्रसार, सदस्यता कैंपेन और रणनीतिक गठबंधन में खर्च कर देते हैं। सवाल उठ रहे हैं कि क्या ये खर्च सिर्फ आस्था के लिए हो रहे हैं, या फिर चुनाव जीतने के बाद इसकी भरपाई ट्रस्ट के संसाधनों से होती है?

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आस्था बनाम राजनीति

शुक्रवार रात हुए घटनाक्रम ने एक बार फिर यह प्रश्न खड़ा कर दिया है –
क्या धार्मिक स्थलों को राजनीतिक अखाड़ा बना देना उचित है?
क्या मंदिर प्रशासन जैसे पवित्र पद पर पहुंचने की लड़ाई अब सिर्फ आस्था नहीं, सत्ता और आर्थिक ताकत की भी लड़ाई बन चुकी है?

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शहर में यह चर्चा ज़ोर पकड़ चुकी है कि यदि कोर्ट आदेश की अनदेखी की जाती है, तो यह अवमानना की श्रेणी में आ सकता है। वहीं ट्रस्ट प्रशासन का पक्ष यह है कि कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही कोई निर्णय लिया जाएगा।

डोंगरगढ़ का माँ बम्लेश्वरी मंदिर एक ओर जहां लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है, वहीं ट्रस्ट का नियंत्रण अब राजनीतिक रस्साकशी का केंद्र बन चुका है। चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, सदस्यता बहाली, नियमों की व्याख्या और पद की दावेदारी को लेकर झड़पें और बयानबाज़ी और तेज़ होती जा रही हैं।

अब देखना यह है कि क्या आस्था की जगह सियासत नहीं ले लेगी? और क्या कोर्ट के आदेश के सम्मान के साथ मंदिर की गरिमा बनी रहेगी, या फिर राजनीति इस पवित्र स्थल को भी लील जाएगी?

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