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छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के निष्ठीगुड़ा में आयोजित समाधान शिविर में एक ऐसा नजारा देखने को मिला, जो दिल को छू गया और सिस्टम की हकीकत को उजागर कर गया। लाटापारा का किसान अशोक कुमार कश्यप, अपनी पुश्तैनी जमीन का बंटवारा कराने की आस लिए, मंच पर चढ़ा और एसडीएम तुलसी दास के सामने साष्टांग लेट गया। उसकी एक ही पुकार थी, "साहब, मेरी जमीन का बंटवारा करा दो!"
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किसान की बेबसी, सिस्टम की रस्मअदायगी
अशोक की कहानी कोई नई नहीं है। उनकी 4.28 एकड़ पुश्तैनी जमीन उनके नाम पर है, लेकिन कब्जा बड़े भाई के पास। साल भर पहले बंटवारे के लिए आवेदन दे चुके अशोक ने सरकार के 'सुशासन तिहार' अभियान में हर दरवाजा खटखटाया, मगर हर बार उन्हें सिर्फ आश्वासन ही मिला। इस बार निष्ठीगुड़ा के अंतिम समाधान शिविर में, हताश अशोक ने मंच पर चढ़कर अपनी व्यथा दोहराई और साष्टांग प्रणाम के साथ गिड़गिड़ाया।
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जवाब में, एसडीएम ने फिर वही पुराना वादा दोहराया - "मामला देखकर स्थाई समाधान करेंगे।" एसडीएम तुलसी दास ने बताया कि अशोक को उनके हिस्से का कब्जा दिलाया गया था, लेकिन दूसरा पक्ष फिर से काबिज हो गया। अब दोबारा स्थल निरीक्षण की बात कही जा रही है। लेकिन सवाल वही है - कब तक?
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जमीन विवादों का जंगल, लंबित मामलों की फेहरिस्त
देवभोग तहसील में 93 राजस्व ग्रामों में 394 राजस्व मामले लंबित हैं। इनमें सीमांकन के 104, क्षतिपूर्ति के 72 और खाता विभाजन के 31 मामले शामिल हैं। तहसीलदार चितेश देवांगन ने बताया कि अशोक के खाते में सिर्फ 2 एकड़ जमीन दर्ज है, जबकि वह 4 एकड़ का दावा कर रहे हैं। इसका कारण? 1991 का पुराना बंदोबस्त, जिसमें हुई त्रुटियां आज भी विवादों का जंगल खड़ा कर रही हैं। हर साल बोनी के समय तहसील और थानों में 20 से ज्यादा जमीन विवाद के मामले पहुंचते हैं। तहसीलदार का कहना है कि जब तक नया बंदोबस्त नहीं होगा, ये सिलसिला चलता रहेगा।
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आधा स्टाफ, पूरी मुश्किल
देवभोग तहसील में हालात और भी पेचीदा हैं। 93 गांवों के लिए एक एसडीएम और एक तहसीलदार हैं। नायब तहसीलदार का पद खाली है। तीन आरआई सर्कल में सिर्फ एक रेवेन्यू इंस्पेक्टर और 27 हल्कों में केवल 14 पटवारी। राजस्व विभाग की रीढ़ कहे जाने वाले पटवारी की कमी ने लंबित मामलों का बोझ और बढ़ा दिया है।
एक किसान की पुकार, सिस्टम का इम्तिहान
अशोक की साष्टांग गुहार सिर्फ एक किसान की कहानी नहीं, बल्कि सिस्टम की उस सच्चाई का आलम है, जहां कागजों में सुशासन की बातें होती हैं, लेकिन हकीकत में किसान को अपनी जमीन के लिए गिड़गिड़ाना पड़ता है। क्या अशोक को उनका हक मिलेगा, या यह कहानी भी आश्वासनों के ढेर में दब जाएगी? यह सवाल सिर्फ अशोक का नहीं, बल्कि हर उस किसान का है, जो सिस्टम से उम्मीद लगाए बैठा है।
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