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न्याय देर से मिला, लेकिन मिला जरूर। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के दीपका गांव की महिला निर्मला तिवारी ने अपने हक के लिए 30 साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और आखिरकार छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने उनके बेटे को जमीन अधिग्रहण के बदले SECL (साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड) में नौकरी देने का आदेश जारी कर दिया है।
1981 में अधिग्रहण,लेकिन नौकरी किसी और को
निर्मला तिवारी की 0.21 एकड़ जमीन वर्ष 1981 में कोरबा स्थित दीपका कोल माइंस के विस्तार के लिए अधिग्रहित की गई थी। SECL की पुनर्वास नीति के अनुसार, मुआवजे के साथ-साथ परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का प्रावधान था। निर्मला को मुआवजा तो वर्ष 1985 में दे दिया गया, लेकिन हैरानी की बात यह रही कि नौकरी एक ऐसे व्यक्ति को दे दी गई, जिसका नाम नंद किशोर जायसवाल था जिसने खुद को निर्मला तिवारी का बेटा बताकर नियुक्ति हासिल की।
महिला की आपत्ति, फर्जीवाड़े का खुलासा
निर्मला तिवारी ने SECL प्रबंधन को इस धोखाधड़ी की सूचना दी और कानूनी कार्रवाई शुरू की। लगातार प्रयासों और दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर SECL ने वर्ष 2016 में नंद किशोर जायसवाल को नौकरी से बर्खास्त कर दिया। लेकिन इसके बाद भी अन्याय यहीं नहीं रुका।
SECL का नया तर्क और न्याय की देरी
जब निर्मला तिवारी ने अपने असली बेटे उमेश तिवारी को नौकरी देने की मांग की, तो SECL प्रबंधन ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि अधिग्रहण के समय जमीन म्यूटेटेड रिकॉर्ड में महिला के नाम नहीं थी और उनका बेटा उस समय पैदा भी नहीं हुआ था।
हाई कोर्ट का सख्त रुख
मामला छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट पहुंचा, जहां न्यायालय ने SECL के तर्क को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि म्यूटेशन रिकॉर्ड महज़ कब्जे का प्रमाण है, स्वामित्व का नहीं। यदि SECL ने मुआवजा दिया, तो यह स्वीकार किया गया कि निर्मला तिवारी ही जमीन की असली मालकिन हैं।
कोर्ट ने कहा कि यदि पहले गलती से किसी फर्जी व्यक्ति को नौकरी दी गई, तो गलती को सुधारते समय असली हकदार को उसका अधिकार मिलना चाहिए। सिर्फ इस आधार पर कि बेटा अधिग्रहण के वक्त पैदा नहीं हुआ था, उसका दावा खारिज नहीं किया जा सकता।
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न्यायालय का फैसला
हाई कोर्ट ने उमेश तिवारी को 6 जुलाई 2017 से नौकरी पर नियुक्त करने और उस तारीख से वेतन सहित सभी सेवा लाभ देने का आदेश दिया। कोर्ट ने SECL के रवैये को “अन्यायपूर्ण” बताते हुए स्पष्ट किया कि इतने वर्षों तक किसी को उनके वैध अधिकार से वंचित रखना गंभीर लापरवाही है।
30 साल की लड़ाई, एक मां की जीत
निर्मला तिवारी की यह लंबी लड़ाई उन हजारों परिवारों के लिए मिसाल है, जिनकी जमीनें विकास के नाम पर ली जाती हैं लेकिन वादों को निभाने में प्रशासनिक उदासीनता सामने आती है। यह मामला न केवल कानूनी जीत है, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी है — “हक के लिए डटे रहो, देर भले हो — इंसाफ जरूर मिलता है।”
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