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छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में वर्ष 2011 में हुए एक सनसनीखेज हत्याकांड में हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए कांस्टेबल संत कुमार की उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा है। जवान पर अपने अधिकारी और तीन साथियों की हत्या और एक जवान को घायल करने का आरोप था। आरोपी ने छुट्टी न मिलने और अफसर से विवाद के चलते यह जघन्य वारदात की थी।
यह मामला उस वक्त सामने आया जब सीआरपीएफ की 168वीं बटालियन में तैनात कांस्टेबल संत कुमार ने ड्यूटी के बंटवारे और छुट्टी को लेकर नाराजगी में सब-इंस्पेक्टर विक्की शर्मा सहित चार जवानों पर गोलियां चला दी थीं। इस घटना में तीन जवानों की मौके पर ही मौत हो गई थी जबकि एक अन्य गंभीर रूप से घायल हुआ था। आरोपी ने अपनी सर्विस राइफल के साथ-साथ एक और राइफल का उपयोग करते हुए अंधाधुंध फायरिंग की थी।
हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी:
चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बीडी गुरु की डिवीजन बेंच ने इस मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि “नक्सल प्रभावित क्षेत्र में तैनात सुरक्षाकर्मी को छुट्टी न मिलने जैसी वजह से अपने साथियों की हत्या करने का कोई अधिकार नहीं है। यह कृत्य अमानवीय और संगीन है। सशस्त्र बलों के जवानों से अनुशासन और आत्म-नियंत्रण की अपेक्षा की जाती है।”
कोर्ट ने कहा कि आरोपी संत कुमार अपने कृत्य के परिणामों से भलीभांति परिचित था और घटना पूर्वनियोजित थी, क्योंकि वह दो राइफलें लेकर अधिकारियों के कैंप में पहुंचा था।
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मुकदमे की पृष्ठभूमि:
घटना के दिन कांस्टेबल संत कुमार ने अपनी एके-47 राइफल से कैंप में ड्यूटी कर रहे सब-इंस्पेक्टर विक्की शर्मा और तीन जवानों पर फायरिंग की थी। एक अन्य सहायक उपनिरीक्षक गजानंद शर्मा इस हमले में घायल हुए थे, लेकिन जान बचाने में सफल रहे। घटना के पीछे जवान की छुट्टी रद्द होने और सब-इंस्पेक्टर से व्यक्तिगत रंजिश सामने आई थी।
जांच और गवाहों की गवाही के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने संत कुमार को IPC की धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या का प्रयास) और आर्म्स एक्ट की धाराओं के तहत दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
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कोर्ट का निर्णय:
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 415(2) के तहत दायर याचिका को हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने खारिज कर दिया। बेंच ने साफ किया कि “बिना किसी हमले या नक्सली गतिविधि के चार जवानों की मौत और एक के घायल होने का कोई वैध कारण याचिकाकर्ता नहीं दे पाया है। यह पूरी तरह से सोची-समझी हत्या थी।”
यह मामला न केवल सशस्त्र बलों में अनुशासन और जिम्मेदारी की अहमियत को रेखांकित करता है, बल्कि इस बात की भी चेतावनी है कि व्यक्तिगत असंतोष या मानसिक दबाव, किसी को भी हिंसा का रास्ता अपनाने का हक नहीं देता। अदालत ने साफ कर दिया है कि ऐसी घटनाएं सुरक्षाबलों की गरिमा और सामाजिक शांति दोनों के लिए घातक हैं।
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