सियासत में कम हुई रियासतों की पूछ परख
अरुण तिवारी, RAIPUR. ऐन चुनाव के मौके पर खैरागढ़ रियासत के विवाद ने कांग्रेस की राजनीति में उफान ला दिया है। मामला पूर्व मुख्यमंत्री भूपेल बघेल से जुड़ा है इसलिए ज्यादा बड़ा और गंभीर हो गया है। रियासत की दो रानियों के बीच पूर्व मुख्यमंत्री फंस गए हैं। एक कांग्रेस की तरफ है तो दूसरी उसके खिलाफ। समय के साथ छत्तीसगढ़ की सियासत में रियासतों की पूछ परख कम होती जा रही है। यही कारण है कि रियासतों का दखल भी सियासत में कम हुआ है। हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी, कांग्रेस ने रॉयल फैमली से सात उम्मीदवार बनाए थे, लेकिन सभी हार गए। वहीं इस लोकसभा चुनाव में महल से एक भी टिकट किसी भी पार्टी ने नहीं दिया। छत्तीसगढ़ बनने के बाद पिछले 24 साल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि विधानसभा में राजपरिवार का एक भी वंशज न रहा हो।
चुनाव में खैरागढ़ रियासत में विवाद
राजनांदगांव लोकसभा क्षेत्र की वोटिंग के एन पहले जारी हुए एक वीडियो ने कांग्रेस के समीकरण गड़बड़ा दिए हैं। ये वीडियों खैरागढ़ रियासत के राजा देवव्रत सिंह की दूसरी पत्नी विभा सिंह का हैं। यहां के राजा देवव्रत सिंह का तीन साल पहले निधन हो गया। वे कांग्रेस की तरफ से विधायक और सांसद भी रहे हैं। देवव्रत सिंह की पहली पत्नी पद्मा सिंह से तलाक लेने के बाद देवव्रत सिंह ने विभा से विवाह किया। अब भूपेश बघेल राजा की पहली पत्नी पद्मा सिंह के साथ प्रचार कर रहे हैं और देवव्रत के नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस पर विभा सिंह को आपत्ति है। उन्होंने अपनी यही आपत्ति एक वीडियो के जरिए जाहिर की है जो खूब वायरल हो रही है। कांग्रेस-बीजेपी एक दूसरे पर आरोप लगाकर इसे राजनीतिक शिगूफा बता रहे हैं।
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सियासत में रियासतों की कम होता दखल
चुनाव के समय बोतल से निकले इस जिन्न ने एक बार फिर सियासत से रियासत के गठजोड़ पर बहस छेड़ दी है। आइए हम आपको बताते हैं प्रदेश में महल के प्रभाव की कहानी। वक्त के साथ छत्तीसगढ़ में राजा रजवाड़ों का राजनीति में दखल कम होता जा रहा है। एक समय था जब महलों के हिसाब से प्रदेश की राजनीति चलती थी लेकिन अब राजनीति के साथ साथ आम जनता में भी उनका प्रभाव कम होता जा रहा है। आम जनता में कम होते असर ने राजाओं के राजनीति में अवसर कम कर दिए हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव। इस चुनाव में रॉयल फैमिली के सात सदस्यों को टिकट मिला लेकिन सातों हार गए। तीन बीजेपी,तीन कांग्रेस और एक को आम आदमी पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया लेकिन ये सभी चुनाव हार गए, कुछ तो अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। हैरानी की बात ये भी है कि लोकसभा चुनाव में ना बीजेपी ने और ना ही कांग्रेस ने और किसी अन्य दल ने किसी रॉयल फैमिली के सदस्यों को अपना उम्मीदवार बनाया। कुछ तो लोकसभा चुनाव के बड़े दावेदार थे।
विधानसभा चुनाव हारे रॉयल फैमिली के ये नेता...
टीएस सिंहदेवः
कांग्रेस सरकार में डिप्टी चीफ मिनिस्टर रहे टीएस सिंहदेव अंबिकापुर विधानसभा सीट से चंद वोटों से चुनाव हार गए। सिंहदेव लगातार तीन बार यहां से चुनाव जीत चुके हैं लेकिन चौथा चुनाव हार गए। वे बिलासपुर से लोकसभा सीट के सबसे बड़े दावेदार थे लेकिन उम्मीदवार नहीं बन सके। सिंहदेव सरगुजा राजघराने से आते हैं। 2018 में सरगुजा रियासत के प्रभाव वाली सभी सीटें कांग्रेस ने जीती थीं तब सिंहदेव को पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा ताकतवर और प्रभावशाली राजा माना गया था।
अंबिका सिंहदेव:
बैकुंठपुर सीट से कांग्रेस की उम्मीदवार रहीं अंबिका सिंहदेव भी चुनाव हार गईं। अंबिका कोरिया राजघराने से आती हैं। यह राजघराना लंबे समय से छत्तीसगढ़ की राजनीति में सक्रिय और प्रभावशाली माना जाता रहा है।
देवेंद्र बहादुर सिंह:
बसना सीट से कांग्रेस की टिकट पर खड़े हुए देवेंद्र बहादुर सिंह भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। देवेंद्र बहादुर महासमुंद की फूलझर रियासत के गोंड रॉयल फैमिली के वंशज हैं। देवेंद्र चार बार विधायक रहे हैं और अजीत जोगी सरकार में मंत्री भी थे।
संयोगिता सिंह:
चंद्रपुर से दो बार के विधायक रहे युद्धवीर सिंह की पत्नी बीजेपी की संयोगिता सिंह यहां से विधानसभा चुनाव हार गई। वे यहां की सिटिंग एमएलए थीं। वे जशपुर के जूदेव राजघराने से ताल्लुक रखती हैं। उनके पति युद्धवीर सिंह, यहां के राजा रहे दिलीप सिंह जूदेव के पुत्र हैं। जूदेव यहां की राजनीति करते रहे हैं। वे केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे थे। इस राजघराने का यहां बड़ा प्रभाव माना जाता रहा है।
प्रबल प्रताप सिंह:
दिलीप सिंह जूदेव के दूसरे पुत्र प्रबल प्रताप सिंह भी कोटा सीट से चुनाव हार गए। वे बीजेपी के उम्मीदवार थे।
संजीव शाह:
मोहला मानपुर सीट से बीजेपी के उम्मीदवार रहे संजीव शाह भी अपना चुनाव हार गए। वे अंबागढ़ चौकी की नागवंशी गोंड रॅायल फैमिली के वंशज हैं।
खड़गराज सिंह:
आम आदमी पार्टी ने खड़गराज सिंह को कवर्धा से उम्मीदवार बनाया था। वे लोहारा राजपरिवार से आते हैं। विधानसभा चुनाव में वे तीसरे नंबर पर रहे।
14 से 4 रियासतों पर सिमटी सियासत
आजादी के वक्त छत्तीसगढ़ में 14 रियासतें थीं लेकिन अब सिर्फ चार रियासतों का ही राजनीति में दखल रह गया है। इनमें सरगुजा, जशपुर, कोरिया और बसना शामिल हैं। वहीं बस्तर, खैरागढ़ और सारंगढ़ की सियासत भी यहां के राजघरानों से चलती रही है, लेकिन इस बार इनको न विधानसभा चुनाव में मौका मिला और न ही लोकसभा चुनाव में उनकी कोई भूमिका रही है।