भानुप्रतापपुर में आदिवासियों का सख्त फैसला, पादरी और ईसाई मिशनरियों की गांव में एंट्री पर रोक

छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में, विशेषकर भानुप्रतापपुर में, नक्सलवाद के बाद धर्मांतरण एक बड़ा मुद्दा बन गया है, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष बढ़ रहा है। प्रशासन कोई प्रभावी कानून लागू हो पा रहा है।

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Krishna Kumar Sikander
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Tribals took a tough decision in Bhanupratappur the sootr
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छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में नक्सलवाद के बाद धर्मांतरण सबसे ज्वलंत मुद्दा बनकर उभरा है। खासकर भानुप्रतापपुर क्षेत्र के कई गांवों में यह समस्या अब सामाजिक और सांस्कृतिक संघर्ष का रूप ले चुकी है। इस मुद्दे पर न तो कोई ठोस कानून प्रभावी ढंग से लागू हो पा रहा है और न ही स्थानीय प्रशासन के पास धर्मांतरण से जुड़ा कोई पुख्ता डेटा है।

आदिवासी इलाके में मतांतरण के बाद वर्ग संघर्ष और समाज में तनाव की स्थिति बन रही है। ऐसे में परेशान होकर भानुप्रतापपुर के लगभग आधा दर्जन गांवों के आदिवासियों ने अपने स्तर पर एक सख्त कदम उठाया है। इन गांवों में बड़े-बड़े बोर्ड लगाए गए हैं।

जिन पर साफ लिखा है कि पादरी, पास्टर, ईसाई धर्म प्रचारक, और यहां तक कि ईसाई धर्म के अनुयायियों का गांव में प्रवेश वर्जित है। यह फैसला ग्राम सभाओं ने लिया है, जो पंचायत (विस्तारित अनुसूचित क्षेत्र) अधिनियम (PESA) और संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत अपनी संस्कृति और परंपराओं की रक्षा के लिए अधिकृत हैं।

ग्रामीणों का मानना है कि प्रलोभन और सामाजिक सेवाओं के नाम पर आदिवासियों का धर्मांतरण कराया जा रहा है, जिससे उनकी सदियों पुरानी संस्कृति और परंपराएं खतरे में पड़ रही हैं। 

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धर्मांतरण पर बढ़ता विवाद

छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण का मुद्दा नया नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में यह और गंभीर हो गया है। भानुप्रतापपुर के कुदाल और जुनवानी जैसे गांवों ने ग्राम सभा के माध्यम से पादरी और मिशनरियों के प्रवेश पर रोक लगाने का प्रस्ताव पारित किया है।

इन गांवों में बोर्ड लगाए गए हैं, जिनमें लिखा है: “PESA एक्ट और पांचवीं अनुसूची के तहत, धर्मांतरण गतिविधियों में शामिल पादरी और मिशनरियों का इस गांव में प्रवेश निषेध है।” ग्रामीणों का कहना है कि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, और आर्थिक सहायता के बहाने आदिवासियों को ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

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जुनवानी गांव के एक धार्मिक नेता राजेंद्र कोमरा ने कहा, “हम किसी धर्म के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रलोभन देकर धर्मांतरण गलत है। यह हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है।”

हाल ही में दुर्ग में दो ननों की गिरफ्तारी का मामला भी सुर्खियों में रहा। जुलाई 2025 में इन ननों पर मानव तस्करी और जबरन धर्मांतरण के आरोप लगे थे, जिसके बाद उनकी जमानत ने सनातन समाज जैसे हिंदू संगठनों के विरोध को और भड़का दिया।

भानुप्रतापपुर में 5 अगस्त 2025 को सनातन समाज ने एक बड़े प्रदर्शन का आयोजन किया, जिसमें न केवल पादरी और मिशनरियों पर प्रतिबंध की मांग की गई, बल्कि कथित अवैध चर्चों को हटाने और ईसाई समुदाय को कब्रिस्तान आवंटन रोकने जैसे 11-सूत्रीय मांगपत्र भी सौंपा गया।

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सामाजिक तनाव और हिंसक घटनाएं

धर्मांतरण के मुद्दे ने आदिवासी और ईसाई समुदायों के बीच तनाव को बढ़ा दिया है। हाल के दिनों में भानुप्रतापपुर क्षेत्र में धर्मांतरित लोगों और आदिवासी समुदायों के बीच कई विवाद सामने आए हैं। एक घटना में, एक धर्मांतरित आदिवासी महिला की मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार को लेकर विवाद इतना बढ़ा कि कब्र से शव निकालना पड़ा।

इसी तरह, कांकेर में भी कब्र खोदकर शव निकाले जाने की घटना ने तनाव को और बढ़ाया। इन घटनाओं के बाद ईसाई समुदाय ने सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन किया। पिछले साल 2024 में छत्तीसगढ़ में ईसाई समुदाय के खिलाफ 165 हिंसक घटनाएं दर्ज की गईं, और 2025 के पहले सात महीनों में ही 86 मामले सामने आए हैं।

ये आंकड़े बताते हैं कि राज्य में धार्मिक तनाव बढ़ रहा है। ईसाई नेताओं का कहना है कि उन्हें झूठे आरोपों में निशाना बनाया जा रहा है। इस संबंध में प्रोग्रेसिव क्रिश्चियन एलायंस के समन्वयक पास्टर साइमन दिग्बल तांडी ने कहा कि संविधान हमें धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हमने कोई कानून नहीं तोडा। इसके बावजूद बदनाम किया जा रहा है।

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राजनीतिक रंग और सियासी बयानबाजी

इस मुद्दे ने राजनीतिक रंग भी ले लिया है। बीजेपी जहां इसे आदिवासी संस्कृति पर हमला और विदेशी साजिश करार दे रही है, वहीं कांग्रेस का आरोप है कि बीजेपी सरकार इस मुद्दे को भुनाकर धार्मिक ध्रुवीकरण कर रही है। बीजेपी नेता प्रबल प्रताप सिंह जूदेव ने कहा, “कांग्रेस शासन में धर्मांतरण के मामले बढ़े। यह एक सुनियोजित साजिश है।” दूसरी ओर, कांग्रेस का कहना है कि सरकार स्थिति को नियंत्रित करने में नाकाम रही है।

उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने गत दिनों घोषणा की थी कि छत्तीसगढ़ धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम सख्त किया जाएगा। हालांकि इससे ईसाई समुदाय में भय का माहौल बन गया है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2025 में छिंदवाड़ा गांव में एक ईसाई पादरी के दफन के अधिकार को बरकरार रखते हुए धार्मिक आधार पर भेदभाव को खारिज किया था, जो इस मुद्दे की संवेदनशीलता को दर्शाता है।

आखिर क्या है समाधान?

भानुप्रतापपुर के गांवों में लगे बोर्ड और पादरी-पास्टर पर प्रतिबंध आदिवासियों की अपनी संस्कृति को बचाने की कोशिश का हिस्सा हैं। लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या यह तरीका सामाजिक तनाव को कम करेगा या और बढ़ाएगा? ईसाई समुदाय का कहना है कि ये प्रतिबंध उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन हैं।

दूसरी ओर, आदिवासी समुदाय का मानना है कि प्रलोभन और बाहरी प्रभाव उनकी पहचान को मिटा रहे हैं। इस मुद्दे का समाधान कानूनी और सामाजिक स्तर पर संवाद से ही संभव है। सरकार को चाहिए कि वह धर्मांतरण के दावों की निष्पक्ष जांच करे और डेटा आधारित नीति बनाए। साथ ही, आदिवासी समुदायों को उनकी संस्कृति और परंपराओं की रक्षा के लिए सशक्त करने के साथ-साथ धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का संतुलन बनाए रखे। 

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