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छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में इंद्रावती नदी पर प्रस्तावित बोधघाट बहुउद्देशीय सिंचाई और जल विद्युत परियोजना एक बार फिर विवादों के घेरे में है। इस परियोजना को लेकर दशकों से चली आ रही अनिश्चितता और स्थानीय आदिवासियों के विरोध ने इसे फिर से सुर्खियों में ला दिया है। हाल ही में, परियोजना के तहत प्रभावित होने वाले 56 गांवों के ग्रामीणों ने अस्पष्ट विस्थापन नीति और अपर्याप्त पुनर्वास योजनाओं को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। ग्रामीणों का कहना है कि वे अपनी पुश्तैनी जमीन और संस्कृति को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाएंगे, चाहे इसके लिए उन्हें "जान देनी पड़े, पर जमीन नहीं देंगे।"
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परियोजना का इतिहास और महत्व
बोधघाट परियोजना की शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी, जब इसे इंद्रावती नदी पर एक बहुउद्देशीय परियोजना के रूप में प्रस्तावित किया गया था। 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने दंतेवाड़ा जिले के बारसूर क्षेत्र में इसकी आधारशिला रखी थी। इस परियोजना का उद्देश्य 3,66,580 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई और 300 से 500 मेगावाट बिजली उत्पादन करना है, जो दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा जिलों के 269 गांवों को लाभ पहुंचाएगी। इसके अलावा, यह परियोजना क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने और मछली उत्पादन (4800 टन) को प्रोत्साहन देने का भी दावा करती है। परियोजना की अनुमानित लागत 49,000 करोड़ रुपये है, जिसमें 855 मीटर लंबा और 75-90 मीटर ऊंचा बांध बनाया जाना है। हालांकि, इस परियोजना को पर्यावरणीय चिंताओं और स्थानीय आदिवासियों के विरोध के कारण 1986 में रोक दिया गया था और 1993 में इसे पूरी तरह रद्द कर दिया गया। 1980 में लागू वन संरक्षण अधिनियम और आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा के लिए पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों ने भी इस परियोजना को लागू करने में बाधा डाली। लेकिन हाल के वर्षों में, छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने इसे पुनर्जनन देने की कोशिश की, जिसके बाद यह फिर से विवाद का विषय बन गई।
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वर्तमान संकट का कारण अस्पष्ट विस्थापन नीति
हाल के समाचारों के अनुसार, बोधघाट परियोजना के तहत 56 गांव पूरी तरह प्रभावित होंगे, जिनमें 12,888 परिवारों के लगभग 2 लाख आदिवासी विस्थापित हो सकते हैं। इस परियोजना के डूब क्षेत्र में 13,783 हेक्टेयर भूमि आएगी, जिसमें 5,704 हेक्टेयर वन भूमि, 5,010 हेक्टेयर निजी भूमि और 3,068 हेक्टेयर राजस्व भूमि शामिल है। इसके साथ ही, 50 लाख से अधिक पेड़, जिनमें साल, सागौन, बीजा, शीशम और दुर्लभ जड़ी-बूटियां शामिल हैं, कटने का खतरा है। ग्रामीणों का सबसे बड़ा विरोध अस्पष्ट विस्थापन नीति को लेकर है। बोधघाट संघर्ष समिति के बैनर तले हितालकूडूम गांव में हाल ही में सैकड़ों ग्रामीणों ने बैठक की और इस परियोजना के खिलाफ उग्र आंदोलन की चेतावनी दी। समिति के अध्यक्ष सुखमन कश्यप ने कहा, "हमारी जमीनें, हमारे जंगल और हमारी संस्कृति हमारी पहचान हैं। सरकार बिना ग्राम सभा की सहमति और स्पष्ट पुनर्वास नीति के हमें विस्थापित नहीं कर सकती।" ग्रामीणों का कहना है कि सरकार ने अभी तक न तो प्रभावित परिवारों के लिए वैकल्पिक जमीन की व्यवस्था की है और न ही उनके सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों, जैसे पेन गुड़ियों (आदिवासी संस्कृति के केंद्र), के संरक्षण की कोई योजना पेश की है।
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आदिवासियों का विरोध और मांगें
बस्तर के आदिवासी समुदाय, जो पांचवीं अनुसूची के तहत संवैधानिक संरक्षण प्राप्त करते हैं, इस परियोजना को अपनी आजीविका और सांस्कृतिक विरासत पर खतरे के रूप में देखते हैं। ककनार गांव के चैतराम ने कहा, "हमारी पुश्तैनी जमीन और जंगल हमारी जिंदगी का आधार हैं। सरकार रायपुर में बैठकर हम पर फैसले थोप रही है, लेकिन हमारी ग्राम सभाओं से कोई राय नहीं ली गई।"
ग्रामीणों की मांग है कि परियोजना शुरू करने से पहले:
ग्राम सभाओं की सहमति : पांचवीं अनुसूची के तहत ग्राम सभाओं की अनुमति अनिवार्य है।
स्पष्ट विस्थापन नीति : प्रभावित परिवारों को वैकल्पिक जमीन, आवास और आजीविका के साधन सुनिश्चित किए जाएं।
पर्याप्त मुआवजा : निजी और वन भूमि के लिए उचित मुआवजा और पारदर्शी प्रक्रिया।
पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन : जंगलों और वन्यजीवों पर पड़ने वाले प्रभाव की गहन जांच।
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पर्यावरणीय चिंताएँ
पर्यावरणविदों ने भी इस परियोजना को लेकर चेतावनी दी है। सामाजिक कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने कहा, "यह परियोजना बस्तर के घने जंगलों और जैव विविधता को नष्ट कर देगी। 50 साल पुरानी इस योजना को लागू करने से पहले नए सिरे से अध्ययन और जन सुनवाई की जरूरत है।" बोधघाट परियोजना से न केवल लाखों पेड़ कटेंगे, बल्कि वन्यजीवों और आदिवासियों की पारंपरिक जीवनशैली पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा।
राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिक्रिया
हालांकि, सरकार का दावा है कि परियोजना से क्षेत्र का विकास होगा और प्रभावितों के लिए बेहतर पुनर्वास की व्यवस्था की जाएगी। दंतेवाड़ा के कलेक्टर कुणाल दुदावत ने कहा, "यह परियोजना बस्तर के लिए ऐतिहासिक है। हम प्रभावितों के पुनर्वास और पर्यावरण संरक्षण के लिए हरसंभव कदम उठाएंगे।" वहीं, 2022 में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस परियोजना को निरस्त करने की घोषणा की थी, लेकिन हाल ही में इसे फिर से शुरू करने की बात सामने आई है, जिससे सियासी बयानबाजी तेज हो गई है। विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने इसे मुद्दा बनाकर कांग्रेस सरकार पर निशाना साधा है।
विरोध की रणनीति
हितालकूडूम में हुई बैठक में ग्रामीणों ने तीन दिन तक परिचर्चा कर आगे की रणनीति तैयार करने का फैसला किया है। बोधघाट संघर्ष समिति ने दंतेवाड़ा, बस्तर, कोंडागांव, नारायणपुर और बीजापुर के आदिवासियों को एकजुट करने की योजना बनाई है। समिति ने चेतावनी दी है कि यदि सरकार उनकी मांगों पर ध्यान नहीं देती, तो वे उग्र आंदोलन शुरू करेंगे।
बस्तर के विकास का सपना
बोधघाट परियोजना, जो बस्तर के विकास का सपना दिखाती है, आदिवासियों के लिए उनकी जमीन, जंगल और संस्कृति पर संकट बनकर उभरी है। अस्पष्ट विस्थापन नीति और अपर्याप्त पुनर्वास योजनाओं ने इस परियोजना को एक बार फिर विवादों में डाल दिया है। ग्रामीणों का दृढ़ संकल्प और संगठित विरोध इस बात का संकेत है कि सरकार को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना होगा। यदि ग्राम सभाओं की सहमति और पर्यावरणीय प्रभावों का पारदर्शी आकलन नहीं किया गया, तो यह परियोजना एक बार फिर ठंडे बस्ते में जा सकती है। बस्तर के आदिवासियों की यह लड़ाई न केवल उनकी जमीन और संस्कृति की रक्षा की है, बल्कि यह भी सवाल उठाती है कि विकास की कीमत पर क्या आदिवासी समुदायों की अनदेखी जायज है?
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