मुख्यमंत्री बाल श्रवण योजना में दिव्यांग बच्चों के नाम पर हुआ करोड़ों का घोटाला

महालेखाकार की ऑडिट रिपोर्ट 2019 में ही उपलब्ध हो गई थी, लेकिन विभाग ने इस मामले को दबाए रखा। समाजसेवी शैलेंद्र बारी और सत्येंद्र कुमार यादव ने जब RTI के माध्यम से दस्तावेज़ निकाले...

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Neel Tiwari
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मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री बाल श्रवण योजना अब एक घोटाले का केंद्र बन गई है। यह योजना दिव्यांग और असहाय बच्चों की सुनने की शक्ति लौटाने के लिए बनाई गई थी। जबलपुर के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) कार्यालय में कार्यरत संविदा अधिकारी सुभाष शुक्ला पर आरोप है कि उन्होंने करोड़ों रुपये की सरकारी राशि का दुरुपयोग किया। इस मामले में याचिकाकर्ता शैलेंद्र बारी की ओर से अधिवक्ता अमिताभ गुप्ता ने हाईकोर्ट में PIL दायर की, जिसके बाद चौंकाने वाले खुलासे हुए।

सर्जरी के बाद नहीं हुआ फॉलो अप

साल 2019 में महालेखाकार की ऑडिट में इस घोटाले का खुलासा हुआ था। रिपोर्ट में सामने आया कि भोपाल की दिव्या एडवांस ईएनटी संस्था सहित अन्य को बिना किसी वास्तविक फॉलोअप इलाज के करोड़ों रुपये का भुगतान किया गया। यह भुगतान ‘फॉलोअप चेकअप’ और ‘कॉक्लियर इम्प्लांट’ के नाम पर किया गया, जिससे सरकार को 2 करोड़ 27 लाख रुपये का नुकसान हुआ। अभिभावकों ने कहा कि कोई सरकारी फॉलोअप हुआ ही नहीं था। यह खुलासा अभी सिर्फ जबलपुर तक सीमित है, लेकिन हाईकोर्ट में मामला पहुंचने के बाद पूरे मध्य प्रदेश में जांच हो सकती है। इस जांच से यह रकम कई करोड़ रुपये तक पहुंच सकती है।

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अभिभावकों के फर्जी दस्तखत कर निकली रकम

इस मामले में सबसे चौंकाने वाला खुलासा तब हुआ जब आरटीआई के जरिए मांगी गई जानकारी में अभिभावकों के कथित हस्ताक्षरों की प्रतियां सामने आईं। इन हस्ताक्षरों को देखकर विशेषज्ञों और अभिभावकों ने भी कहा कि ये सभी हस्ताक्षर फर्जी हैं। ऐसा लगता है कि किसी एक व्यक्ति ने एक ही समय पर सभी हस्ताक्षर किए हों।

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हितग्राही जैद अहमद के पिता ने बताया कि उन्होंने सर्जरी के बाद अपने खर्च पर बच्चे का फॉलोअप निजी क्लिनिक में करवाया। हितग्राही नीरज ताम्रकार ने भी बताया कि उन्होंने जबलपुर में स्वयं खर्च करके थेरेपी करवाई। इन परिवारों ने NHM से इंप्लांट लगवाने के अलावा कोई अन्य सेवा नहीं ली, फिर भी कागजों में उनके नाम पर लाखों रुपये का भुगतान हो गया।

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फर्जी कागजातों से हासिल की संविदा नियुक्ति

आरोपों के बाद यह सामने आया कि सुभाष शुक्ला ने डीईआईएम पद के लिए फर्जी दस्तावेज़ पेश किए। उन्होंने बंसल न्यूज़ और नवभारत जैसे समाचार पत्रों से नकली अनुभव प्रमाणपत्र दिखाए। इन प्रमाणपत्रों में 20,000 रुपये नकद मानदेय दिया जाना बताया गया। यह NHM की भर्ती प्रक्रिया के अनुसार अमान्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शुक्ला ने जानबूझकर बैंक पासबुक की प्रति नहीं दी। उन्होंने यह छिपाया कि उन्हें अनुभव के रूप में कोई वैध वेतन नहीं मिला था। इस तरह उन्होंने कूटरचित दस्तावेजों के आधार पर गलत तरीके से नियुक्ति हासिल की।

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 मेडिकल उपकरणों में भी हेराफेरी

घोटाले की परतें यहीं तक सीमित नहीं रहीं। स्वास्थ्य विभाग की RBSK योजना के तहत प्रचार के लिए ऑडियो सिस्टम की खरीद के लिए सरकारी राशि का गबन किया गया। सुभाष शुक्ला ने नोटशीट चला कर ऑडियो सिस्टम की खरीद दिखा दी। भुगतान भी हो गया, लेकिन आज तक वह सिस्टम न मिला और न ही किसी वाहन पर लगा।

पांच साल तक फाइलें दबाकर बैठा स्वास्थ्य विभाग

महालेखाकार की ऑडिट रिपोर्ट 2019 में ही उपलब्ध हो गई थी, लेकिन विभाग ने इस मामले को दबाए रखा। समाजसेवी शैलेंद्र बारी और सत्येंद्र कुमार यादव ने जब RTI के माध्यम से दस्तावेज़ निकाले और मुख्यमंत्री से शिकायत की, तब जाकर मुख्यमंत्री कार्यालय हरकत में आया। अब मुख्यमंत्री मॉनिट सी श्रेणी के निर्देश के तहत क्षेत्रीय संचालक स्वास्थ्य सेवाएं, जबलपुर को जांच के आदेश दिए गए हैं।

MP हाईकोर्ट में जनहित याचिका

शैलेंद्र बारी की ओर से अधिवक्ता अमिताभ गुप्ता ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में जनहित याचिका (PIL) दाखिल की है। इसमें कहा गया कि घोटाला केवल जबलपुर तक सीमित नहीं है। यह प्रदेशभर में सरकारी धन की हेराफेरी हो सकती है। एक्टिंग चीफ जस्टिस संजीव सचदेवा और जस्टिस विनय सराफ की डिवीजनल बेंच ने इस मामले को सुनवाई योग्य माना। सरकार ने बताया कि जांच शुरू कर दी गई है। कोर्ट ने स्वास्थ्य विभाग को नोटिस जारी किया और जांच की जानकारी मांगी। इस मामले की अगली सुनवाई 14 जुलाई को होगी।

अब भी चुप बैठे जिम्मेदार

अब तक सुभाष शुक्ला के खिलाफ न तो FIR दर्ज हुई है, न ही उनकी संविदा सेवा समाप्त की गई है। मुख्यमंत्री से शिकायत के बाद स्वास्थ्य विभाग के आदेश पर जबलपुर CMHO कार्यालय में पदस्थ वरिष्ठ संयुक्त संचालक ने 6 अप्रैल 2025 को जांच रिपोर्ट विभाग को भेजी। लेकिन उसके बाद भी मामले में टालमटोली जारी है। यह सुस्ती स्वास्थ्य विभाग की जवाबदेही पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। फर्जी हस्ताक्षर, झूठे दस्तावेज़, इलाज के बिना भुगतान और उपकरणों की धोखाधड़ी के पुख्ता सबूत होने के बावजूद कार्रवाई में देरी क्यों हो रही है?

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