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मध्यप्रदेश में एक बार फिर आदिवासी सत्ता के केंद्र में हैं। इन सबके बीच वन अधिकार पत्र के नाम पर जंगलों में बढ़ते अतिक्रमण पर पूर्व सीसीएफ आजाद सिंह डबास ने आपत्ति दर्ज कराई है। उन्होंने आदिवासियों को उकसाने के लिए केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह को जिम्मेदार ठहराते हुए सीएम डॉ.मोहन यादव को चिट्ठी लिखी है। वन अधिकार पत्र को प्रदेश में आदिवासी वोट बैंक को साधने का जरिया बताकर पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान की भूमिका को कटघरे में खड़ा किया है।
1985 बैच के आईएफएस अधिकारी आजाद सिंह डबास ने सीधे तौर पर केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान पर आपराधिक केस दर्ज करने की मांग की है। उनका कहना है कि शिवराज लगातार आदिवासियों को अतिक्रमण के लिए उकसा रहे हैं। केवल अतिक्रमण करना ही अपराध नहीं है, वे 6 साल से इसे लेकर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। इसके लिए सरकार को पत्र भी लिख रहे हैं। वन विभाग के पास हर रेंज की सैटेलाइट इमेजरी उपलब्ध है।
इससे वन क्षेत्र में अतिक्रमण को चिन्हित कर वन अधिकार पत्र के लिए आ रहे दावों को सत्यापित किया जा सकता है। अधिकारी भी इस पर कोई स्टैंड नहीं लेना चाहते। यदि सैटेलाइट इमेजरी में वन अधिकार अधिनियम में तय 13 दिसम्बर 2005 के बाद के कब्जे हैं तो ऐसे दावों को खारिज किया जाना चाहिए।
इसके उलट अधिकारी गांव में अतिक्रमणकारियों से पूछताछ के आधार पर वन अधिकार पत्र बांट रहे हैं। प्रदेश में वन अधिकार पत्र बांटने के नाम पर वोटों का नंबर गेम चल रहा है। प्रदेश में तीन लाख वन अधिकार पत्र बांट दिए गए हैं। अब फिर से पौने तीन लाख दावे आ गए हैं। ये दावे कहां से आ रहे हैं। सरकार ने हाल ही में दिसम्बर 2025 तक अंतिम रूप से वन अधिकार पत्र बांटने की डेडलाइन तय की है। लेकिन अब तक जो पट्टे बांटे गए हैं उनकी सेटेलाइट इमेजरी से जांच कराई जानी चाहिए।
सीएफओ के तबादले पर उठाए सवाल
प्रस्तावित खिवनी अभयारण्य की सीमा में अतिक्रमणकारी बारेला आदिवासियों को हटाने की कार्रवाई नियमानुसार हुई है। कलेक्टर की निगरानी में पुलिस बल उपलब्ध कराया गया था, लेकिन सीहोर डीएफओ का तबादला कर वन अधिकारियों पर कार्रवाई कर दी गई। कुछ साल पहले लटेरी के जंगल में अवैध कटाई करने वालों को रोकते समय गोली चलने की घटना में वनकर्मियों पर केस लाद दिए गए।
आदिवासियों को रोजगार, स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करा नहीं पाए और अब वन अधिकार पत्र देकर गुमराह किया जा रहा है। बुधनी में आदिवासियों के नाम पर जिन बारेला समुदाय को वन अधिकार पत्र बांटे जा रहे हैं 50-55 साल पहले वे यहां नहीं थे। उन्हें काम के लिए खरगोन-बड़वानी से यहां लाया गया था। यहां के मूल आदिवासियों को शिवराज सिंह चौहान ने कोई लाभ पहुंचाया ही नहीं। शिवराज सिंह चौहान ने ही 16 साल तक रातापानी को टाइगर रिजर्व बनने से रोका था। उन्हीं के इशारे पर इछावर-सीहोर क्षेत्र में खिवनी अभयारण्य बनने से रोक दिया।
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90% क्षेत्र वन्यप्राणियों के संरक्षण से बाहर
प्रदेश में तीन साल पहले लोकसभा में तत्कालीन केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री ने स्वीकार किया था कि मध्यप्रदेश में दूसरा सबसे ज्यादा अतिक्रमण वन क्षेत्र में है। डॉ.मोहन यादव की सरकार डेढ़ साल से अतिक्रमण रोकने के लिए काम कर रही है। प्रदेश में कुल वन क्षेत्र तीन लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि वन्यप्राणियों के लिए सुरक्षित एरिया केवल 95 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ही है। यानी केवल 10 फीसदी ही है। 90 प्रतिशत क्षेत्र वन्यप्राणियों के संरक्षण से बाहर है।
इस पर अतिक्रमण की सबसे ज्यादा समस्या है। यहीं पर वन अधिकार पत्र दिए जा रहे हैं। इन क्षेत्रों में वन अधिकार पत्र देने के बाद मुनार खड़ी पर अतिक्रमण रोका जाना चाहिए लेकिन अधिकारी ऐसा करेंगे तो नेता नाराज हो जाएंगे। जब योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार होगा तो प्रदेश की जनता का भला नहीं होने वाला, खासतौर पर आदिवासी समुदाय का तो बिलकुल ही भला नहीं होगा।
अवैध कॉलोनियों को दिया बढ़ावा
पूर्व आईएफएस डबास ने केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह पर अवैध कॉलोनियों को बढ़ावा देने के आरोप भी लगाए हैं। उन्होंने कहा चुनाव से पहले अवैध कॉलोनियों को वैध करने का शिगूफा छोड़ा जाता है। भोपाल में कलियासोत से लेकर रातापानी टाइगर रिजर्व, होशंगाबाद रोड पर खेतों में तक अवैध कॉलोनियां फैल गई है। कलियासोत और बड़े तालाब के कैचमेंट एरिया में बड़े-बड़े अधिकारियों ने बंगले बना लिए हैं। शहरों के विकास की प्लानिंग फेल है। भोपाल में ही 35 साल से मास्टरप्लान आने का इंतजार हो रहा है। चुनाव आएगा फिर घोषणाएं होंगी और लोगों को बाद में नारकीय जीवन जीने छोड़ दिया जाएगा।
शिवराज सिंह चौहान ने 2017 में नर्मदा के किनारे सात करोड़ पौधे लगवा दिए गए, क्या हुआ? आज सात लाख पौधे भी नहीं मिलेंगे। शिवराज के विधानसभा क्षेत्र के बुधनी के लाड़कुई क्षेत्र में 2012 में वन विकास निगम के तहत कराए गए पौधरोपण क्षेत्र में अतिक्रमणकारियों को वन अधिकार पत्र दिए गए हैं। जब यह क्षेत्र ही 2005 के बाद विकसित किया गया तो यहां कब्जा जमाने वाले वन विकास पत्र के लिए कैसे पात्र हो गए।
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प्रकोष्ठ हैं, पर संवेदनशीलता नहीं
मध्यप्रदेश के वनक्षेत्र का असर केवल यहीं नहीं आसपास के प्रदेशों पर होता है। मौसम में विकृति आ रही है, लेकिन कोई कुछ नहीं कर रहा है। मैंने दो साल कांग्रेस में काम किया, लेकिन वहां वन एवं पर्यावरण के क्षेत्र में करने के लिए कोई अवसर ही नहीं है। राजनीतिक दलों में झुग्गी झोपड़ी का प्रकोष्ठ तो हैं, लेकिन वन एवं पर्यावरण के लिए कोई संवेदनशीलता नहीं है।
एसीएस बने अधिकारियों को वन अधिकारियों की एसीआर लिखने का अधिकार तो चाहिए, लेकिन वनों में हो रहे कब्जों को रोकने के लिए कोई काम नहीं करना। सीएस भी मुख्यमंत्री को इसके लिए कोई सलाह नहीं दे रहे हैं। यही हालात रहे तो जंगल बचने वाले नहीं है। प्रदेश में केन-बेतवा लिंक, पार्वती-सिंध और चंबल नदियों को लिंक करने का काम चल रहा है, लेकिन जब वन ही नहीं बचेंगे तो पानी कहां से आएगा। यहां कोई ग्लेशियर तो हैं नहीं, जिनसे पानी उतरेगा। यदि ऐसे ही राजनीतिक हितों के लिए जंगलों में अतिक्रमण को बढ़ावा दिया गया तो आने वाले सालों में नर्मदा में भी पानी नहीं बचेगा।
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