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मप्र सरकार कर्मचारियों के हितों के खिलाफ जाने में कोई कोताही नहीं कर रही है। हालत यह है कि एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की केवल 8 से 10 हजार रुपए की मासिक पेंशन रोकने के लिए वह सुप्रीम कोर्ट तक चली गई और आखिर में वहां हार गई। लेकिन कर्मचारी को भी जिते हुए यह सुविधा नहीं मिली और केस लड़ते समय ही उसकी मौत हो गई।
27 साल तक चला केस
साल 1974 में मदनलाल शर्मा विभाग में मिस्त्री के पद पर दैनिक वेतन भोगी के रूप में भर्ती हुए। साल 1999 में लेबर कोर्ट ने उन्हें नियमित करने के आदेश दिए। लेकिन सरकार ने 2000 में इंडस्ट्री कोर्ट में इसके खिलाफ अपील कर दी, लेकिन हार गई। सरकार यहां भी नहीं रुकी और हाईकोर्ट में साल 2001 में अपील की। यहां भी साल 2003 में हारी लेकिन नियमित नहीं किया। साल 2012 में बिना नियमित हुए ही शर्मा रिटायर हो गए। उन्होंने पेंशन मांगी तो सरकार ने मना कर दिया। शर्मा फिर हाईकोर्ट गए, हाईकोर्ट में वह जीते और साल 2016 में हाईकोर्ट ने पेंशन के आदेश दिए। लेकिन सरकार ने अपील कर दी। इसके बाद शर्मा साल 2021 में सुप्रीम कोर्ट गए। वहीं साल 2022 में सरकार से लड़ते हुए उनकी मौत हो गई। वहीं अब सुप्रीम कोर्ट ने परिवार को पेंशन देने के आदेश दिए हैं।
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केस पर 12 लाख खर्च
सरकार ने कर्मचारी को पेंशन देने के लिए हर स्तर पर कानूनी लड़ाई लड़ने में अधिक रुचि दिखाई और इस पर 12 लाख रुपए से ज्यादा खर्च कर दिए। लेकिन वह कोर्ट आदेशों के बाद भी कर्मचारी को केवल आठ-दस हजार की पेंशन देने में हिचकते रहे। 38 साल नौकरी करने के बाद रिटायर हुए कर्मचारी के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कर्मचारी के रिटायर होने की तारीख से हाई कोर्ट की सिंगल बेंच के आदेश होने तक पेंशन की जाए। मृत्यु होने के बाद पत्नी को परिवार पेंशन का लाभ दिया जाए। छह फीसदी ब्याज भी चुकाने के आदेश कोर्ट ने दिए हैं।
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