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MP State Bar Council Photograph: (THE SOOTR)
मध्यप्रदेश की न्यायिक प्रणाली में एक बार फिर न्याय की सर्वोच्चता सामने आई जब मप्र उच्च न्यायालय की प्रधान खंडपीठ ने मप्र राज्य अधिवक्ता परिषद् द्वारा पारित एक विवादास्पद प्रस्ताव पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी। यह प्रस्ताव परिषद् के कार्यकाल को दो वर्षों तक बढ़ाने का था, जिसे कोविड-19 के प्रभाव को आधार बनाकर पारित किया गया था। अदालत ने इस प्रस्ताव पर न केवल सवाल उठाए बल्कि परिषद् से यह भी स्पष्ट करने को कहा है कि उसने किस अधिकार से यह निर्णय लिया, जबकि कानून इसके बिल्कुल विपरीत है।
अधिवक्ता मंच ने दी प्रस्ताव को चुनौती
इस विवादित प्रस्ताव को चुनौती देने का बीड़ा उठाया अखिल भारतीय संयुक्त अधिवक्ता मंच भारत के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री चंद्र कुमार वलेजा और वरिष्ठ अधिवक्ता श्री नरेंद्र जैन ने। उन्होंने मप्र उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर कर यह मुद्दा उठाया कि परिषद् द्वारा पारित यह प्रस्ताव न केवल अवैधानिक है, बल्कि अधिवक्ताओं के लोकतांत्रिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन भी है। याचिकाकर्ताओं ने अदालत को बताया कि यदि इस प्रकार परिषदें मनमाने ढंग से कार्यकाल बढ़ाने लगेंगी, तो वह दिन दूर नहीं जब अधिवक्ता संगठनों का उद्देश्य ही बदल जाएगा और लोकतांत्रिक प्रणाली पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा।
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कोर्ट को बताया गया इस मामले में कानूनी पक्ष
याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता दीपक पंजवानी ने न्यायालय के समक्ष अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 8 का विस्तारपूर्वक उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया कि किसी भी राज्य अधिवक्ता परिषद् का कार्यकाल अधिकतम 5 वर्षों का होता है। यह पांच वर्ष की अवधि उस तारीख से गिनी जाती है जब परिषद् के चुनाव की अधिसूचना प्रकाशित होती है। यदि किसी कारणवश समय पर चुनाव नहीं हो पाते, तो केवल भारतीय विधि परिषद् के पास ही यह अधिकार होता है कि वह वैध कारणों के आधार पर अधिकतम 6 महीने का विस्तार प्रदान कर सके। मप्र राज्य अधिवक्ता परिषद् के पास यह अधिकार नहीं है कि वह स्वयं ही अपने कार्यकाल को बढ़ा ले, यह संविधान और अधिनियम दोनों के विरुद्ध है।
राज्य अधिवक्ता परिषद का प्रस्ताव बना विवाद का विषय
साल 2020 में, मप्र राज्य अधिवक्ता परिषद् ने 16 अक्टूबर को चुनाव संबंधी अधिसूचना प्रकाशित की थी, जिसके अनुसार परिषद् का कार्यकाल 15 अक्टूबर 2025 को समाप्त होना था। इसके बावजूद, परिषद् ने 11 फरवरी 2024 को एक कार्यकारिणी बैठक आयोजित कर एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें दावा किया गया कि कोविड-19 महामारी के चलते परिषद् के कार्यों में रुकावट आई है, और इस कारण कार्यकाल को दो वर्षों तक बढ़ाया जाना चाहिए। इसके पश्चात, 7 जुलाई 2024 को परिषद् की आमसभा बुलाई गई और उसी प्रस्ताव को पारित कर दिया गया। यह भी निर्णय लिया गया कि प्रस्ताव की जानकारी भारतीय विधि परिषद् को दी जाएगी। याचिकाकर्ताओं ने इसे न केवल असंवैधानिक बताया, बल्कि अधिवक्ता समुदाय की लोकतांत्रिक भावना के विरुद्ध बताया।
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कोर्ट की सख्त टिप्पणी और निर्देश
जबलपुर हाइकोर्ट में चीफ जस्टिस सुरेश कुमार कैत और जस्टिस विवेक जैन की डिविजनल बेंच ने इस पूरे प्रकरण को गंभीरता से लेते हुए राज्य अधिवक्ता परिषद् के प्रस्ताव पर अंतरिम स्थगन आदेश पारित कर दिया। अदालत ने स्पष्ट रूप से परिषद् से जवाब मांगा है कि उसने किस आधार पर यह निर्णय लिया, जबकि कानूनन ऐसा कोई अधिकार उसे प्राप्त नहीं है। न्यायालय का यह आदेश न केवल तत्काल प्रभावी हुआ, बल्कि इसने अन्य राज्यों की अधिवक्ता परिषदों के लिए भी यह स्पष्ट संदेश दिया कि लोकतंत्र के नाम पर मनमानी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
अधिवक्ताओं ने किया निर्णय का स्वागत
इस निर्णय के बाद राज्य भर के अधिवक्ताओं में एक प्रकार की राहत और विश्वास की भावना देखी गई है। कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने इस आदेश का स्वागत करते हुए कहा कि अधिवक्ता परिषदें अधिवक्ताओं की सेवा और हितों के लिए बनी हैं, न कि कुछ पदाधिकारियों को कुर्सी पर बनाए रखने के लिए। यदि कार्यकाल बढ़ाने की अनुमति बिना वैधानिक प्रक्रिया के दी जाने लगी, तो अधिवक्ता संगठनों की साख और लोकतांत्रिक प्रणाली पर गहरा आघात लगेगा।
अब सभी की निगाहें मप्र राज्य अधिवक्ता परिषद् के आगामी जवाब और अदालत की अगली सुनवाई पर टिकी हैं। यह मामला न केवल मध्यप्रदेश बल्कि पूरे देश में अधिवक्ता परिषदों की कार्यप्रणाली और उनकी वैधानिक सीमाओं को लेकर एक नजीर बन सकता है। यह भी तय होगा कि भविष्य में कोई भी परिषद अपने हित में निर्णय लेने से पहले अधिवक्ता अधिनियम की मर्यादाओं को ध्यान में रखेगी या नहीं।
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