कैसे हो मध्य प्रदेश में उपभोक्ताओं का संरक्षण, सुनवाई करने 31 फोरम में नहीं अध्यक्ष

उपभोक्ताओं को हक दिलाने वाली संस्थाएं भी सरकारी उदासीनता की शिकार हैं। प्रदेश के 55 जिलों में से फिलहाल 52 में डिस्ट्रिक्ट कंज्युमर फोरम काम कर रहे हैं। उपभोक्ता मामलों की सुनवाई करने वाले आयोगों को ही अब सुनवाई की दरकार है।

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Sanjay Sharma
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Photograph: (the sootr)

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BHOPAL. उपभोक्ताओं को उनका हक दिलाने वाली संस्थाएं भी सरकारी उदासीनता की शिकार हैं। प्रदेश के 55 जिलों में से फिलहाल 52 में जिला उपभोक्ता प्रतितोषण आयोग यानी डिस्ट्रिक्ट कंज्युमर फोरम काम कर रहे हैं। उपभोक्ताओं से संबंधित मामलों की सुनवाई करने वाले आयोगों ही अब सुनवाई की दरकार है। प्रदेश के 52 में से 31 कंज्युमर फोरम में तो अध्यक्ष ही नहीं हैं। वहीं सदस्यों के भी 32 पद रिक्त पड़े हैं। इनमें से कुछ आयोगों में एक या दो साल से अध्यक्ष का पद खाली है तो कहीं-कहीं तीन से चार साल से नियुक्ति नहीं हुई है। नियुक्ति न होने से उपभोक्ता विवाद से संबंधित मामलों की संख्या बढ़ रही है। क्योंकि समय पर सुनवाई नहीं हो पा रही और फैसले महीनों से सालों तक खिंचते जा रहे हैं। यानी जिस उद्देश्य को लेकर कंज्युमर फोरम स्थापित किए गए वे उपभोक्ताओं के हितों संरक्षण नहीं कर पा रहे हैं। और उपभोक्ताओं के अधिकारों का हनन हो रहा है। वहीं इन खाली आयोगों का भार दूसरे आयोगों के अध्यक्षों को सौंप दिया गया है। कुछ अध्यक्षों पर तो तीन-तीन जिलों की जिम्मेदारी है। 

प्रदेश के इंदौर नं 1, शिवपुरी, धार, सतना, मुरैना, हरदा, बुरहानपुर, सीहोर, बड़वानी, मंडलेश्वर, मंडला, डिंडोरी, नरसिंहपुर, सिवनी, बालाघाट, शाजापुर, देवास, रायसेन, झाबुआ, नीमच, उमरिया, सीधी, शहडोल, अनूपपुर, राजगढ़, अशोकनगर, दतिया, श्योपुर, टीकमगढ़, पन्ना और बैतूल जैसे 31 जिलों में कंज्युमर फोरम बिना अध्यक्षों के चल रहे हैं। इनमें सदस्यों के 32 पद भी रिक्त हैं। इन जिलों के आयोगों को उन जिलों से संबद्ध कर दिया गया है जहां फिलहाल अध्यक्ष कार्यरत हैं। सरकार के स्तर पर ये काम भले ही इन जिलों के उपभोक्ताओं की सुविधा के लिए किया गया है लेकिन इसने उलझन और बढ़ा दी है। एक फोरम के अध्यक्ष पर अब तीन_तीन जिलों की जिम्मेदारी हैं। इस वजह से वे नियमित रूप से अपने जिले में सुनवाई कर पा रहे हैं न संबद्धता वाले फोरम संभाल पा रहे हैं। 

अध्यक्षों पर दोहरी-तिहरी जिम्मेदारी  

बड़ी विसंगति तो कार्यरत डिस्ट्रिक्ट कंज्युमर फोरम अध्यक्षों को दूसरे जिलों की संबद्धता देने में हुई है। डिस्ट्रिक्ट फोरम अध्यक्ष सेवानिवृत्त जिला जज होते हैं। यानी उनकी उम्र 55 या 60 साल से अधिक हो चुकी होती है। इसके बाद भी इन अध्यक्षों को 200 से 300 किलोमीटर दूर स्थित दो या तीन जिलों का दायित्व सौंपा गया है। इतनी दूरी लगातार तय कर पाना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं हो पा रहा है। अब इसका असर सीधे तौर पर फोरम के कामकाज पर पड़ रहा है। रीवा जिला उपभोक्ता फोरम अध्यक्ष को सतना और सीधी जिला फोरम की जिम्मेदारी दी गई है। सिवनी बालाघाट को छिंदवाड़ा जिला उपभोक्ता फोरम, अशोकनगर और राजगढ़ को गुना, शाजापुर और देवास को उज्जैन, अनूपपुर, उमरिया और शहडोल को कटनी जिला फोरम, बड़वानी और  झाबुआ को रतलाम, मंडला, डिंडौरी और नरसिंहपुर फोरम से जोड़ा गया है। 

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22 हजार परिवाद विचाराधीन 

प्रदेश में फिलहाल जिला उपभोक्ता आयोगों में 22 हजार से ज्यादा परिवाद विचाराधीन हैं। वहीं राज्य उपभोक्ता फोरम पर भी करीब 10 हजार मामलों का भार है। इनमें से ज्यादातर मामले तीन से पांच साल या उससे भी पुराने हैं। जिला उपभोक्ता फोरम में आने वाले मामलों को लेकर वकीलों का कहना है आमतौर पर परिवाद पर निर्णय आने में कम से कम दो साल तो लगते ही हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम मामलों में होता है, ज्यादातर केस तो तीन या पांच साल तक विचारण में अटके रहते हैं। उस पर उपभोक्ता फोरम में अध्यक्ष की नियुक्ति का पेंच हो तो इसमें और भी ज्यादा समय लग जाता है। फिलहाल तो 31 जिला फोरम बिना अध्यक्ष के चल रही हैं। अध्यक्ष नहीं होने से सुनवाई टलती रहती है या निर्णय को आगे बढ़ा दिया जाता है।

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केस से ज्यादा किराए पर खर्च  

विदिशा में सचिन गौतम ने ट्रेड आउटलेट से खरीदे गए रेडिमेड पैंट के डिफेक्टिव होने पर परिवाद पेश किया था। तीन साल पहले जिला उपभोक्ता फोरम में लगाए गए इस परिवाद पर डेढ़ साल तक सुनवाई होती रही। करीब 1200 रुपए के पैंट के खराब निकलने पर वकील की फीस, परिवाद खर्च और सुनवाई के किराए पर ही वे सात हजार से ज्यादा खर्च कर चुके थे। कई बार तो पेशियां टलने से उन्हें परेशानी भी उठानी पड़ी और अंत में समझौता करना ज्यादा मुनासिब समझा। 

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पद ही रिक्त, कैसे हो हित संरक्षण  

अधिवक्ता जीपी उपवंशी के अनुसार ग्राहक संबंधी विवादों की सुनवाई की रफ्तार तेज होनी चाहिए। आयोगों में अध्यक्ष और सदस्यों की कमी का असर सुनवाई पर पड़ता है। राज्य उपभोक्ता आयोग में सदस्य के दो पद खाली पड़े हैं। एक सदस्य का सेवाकाल समाप्त होने वाला है। करीब छह महीने पहले सदस्यों के दो पदों पर नियुक्ति के लिए ऑनलाइन परीक्षा ली गई। इसका रिजल्ट घोषित ही नहीं किया गया। करीब चार महीने पहले रिटर्न टेस्ट लिया  गया और इसके परिणाम का भी अब तक इंतजार हो रहा है। इस धीमी रफ्तार से काम होगा तो कैसे उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण हो सकेगा।

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