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Photograph: (the sootr)
Point of view.भारत...कोई दुर्घटना से बना देश नहीं है। यह कोई तात्कालिक समझौता भी नहीं है। भारत एक लंबी सभ्यतागत यात्रा का नतीजा है। जहां असहमति को जगह मिली। जहां बहस अपराध नहीं है। जहां पूजा व्यक्तिगत आस्था है...लेकिन आज भारत एक चिंताजनक मोड़ पर खड़ा है। आज यह सवाल पूछना जरूरी हो गया है कि क्या हम उसी भारत में रह रहे हैं, जिसकी कल्पना हमारे ऋषि-मुनियों, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और हमारे पूर्वजों ने की थी? या फिर हम धीरे-धीरे ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं, जहां भीड़ तय करेगी कि कौन सही है, कौन गलत, कौन देशभक्त है और कौन गद्दार?
आज 'द सूत्र' का 'प्वाइंट ऑफ व्यू' किसी एक धर्म पर नहीं है। यह किसी एक समुदाय पर भी नहीं है। यह विचार उस उन्मादी सोच के खिलाफ है, जो धर्म को हथियार, त्योहार को युद्ध और आस्था को डर का औजार बना रही है।
साथियो! भारत की आत्मा अनेकता में बसती है। यहां असंख्य देवी-देवता हैं। सैकड़ों भाषाएं हैं। दर्जनों जीवन दर्शन हैं। यह देश कभी एक रंग का नहीं रहा, फिर भी एक रहा।
आज यही अनेकता कुछ लोगों को खल रही है। ये चंद लोग तय करना चाहते हैं कि कौन क्या पहनेगा? कौन क्या गाएगा? कौन किस दिन खुश होगा और किस दिन चुप रहेगा? मैं कहता हूं, यह धार्मिक चेतना नहीं है। यह सामाजिक नियंत्रण है। और इतिहास गवाह है, जहां नियंत्रण शुरू होता है, वहां लोकतंत्र दम तोड़ने लगता है।
मैं हाल ही गुजरे क्रिसमस पर्व से अपनी बात शुरू करता हूं।
यह क्रिसमस डर, धमकी और हिंसा लेकर आया
इस साल का क्रिसमस सिर्फ केक और कैरल की खबरें नहीं लाया। यह डर, धमकी और हिंसा की कई तस्वीरें लेकर आया। इंदौर में सोशल मीडिया पर खुलेआम चेतावनी दी गई कि यदि 25 दिसंबर को किसी स्कूल या इवेंट में हिंदू बच्चों को उनके पैरेंट्स की इजाजत के बिना सांता क्लॉज या जोकर बनाया गया तो सजा दी जाएगी।
मैं समझता हूं यह चेतावनी नहीं है। यह सीधा संदेश है कि अब बच्चों पर भी पहरा होगा। सवाल यह नहीं कि बच्चे सांता बनें या नहीं। सवाल यह है कि क्या किसी संगठन को यह अधिकार है कि वह बच्चों की आजादी पर पाबंदी लगाए? यह वही रास्ता है, जहां से समाज में डर अपना रास्ता बनाता है।
इंदौर में ही क्रिसमस ट्री के साथ तोड़फोड़ की गई। नारे लगाए गए। हंगामा हुआ। एक युवती माइक से बार-बार शांति की अपील करती रही। वह कहती रही कि हम जय श्री राम बोल देंगे, बस ये मत करो। यह नजारा बताता है कि आज शांति को भी अपनी निष्ठा साबित करनी पड़ रही है।
जबलपुर की कहानी और चिंताजनक है। वहां चर्च परिसर में नेत्रहीन महिला के साथ दुर्व्यवहार किया गया। दूसरी घटना में प्रार्थना सभा के दौरान 15-20 लोग जबरन चर्च में घुस गए। उन्होंने नारे लगाए और भगदड़ जैसी स्थिति बन गई। अब सवाल यह है कि क्या यह आस्था का अपमान नहीं है? क्या यह मानवता का अपमान नहीं है? अगर पूजा के स्थान सुरक्षित नहीं हैं, तो समाज किस भरोसे जिए?
रायपुर के मैग्नेटो मॉल की घटना सबसे खतरनाक संकेत देती है। वहां लाठी-डंडों के साथ एक संगठन से जुड़े कई लोग अंदर घुसे। मॉल में मौजूद लोगों से पूछा कि तुम हिंदू हो या ईसाई? तुम्हारी जाति क्या है? आईडी कार्ड देखे गए। दुकानों में तोड़फोड़ की गई। इन सबसे मॉल में करीब 20 लाख रुपये का नुकसान हुआ। यह घटना समाज को आईना दिखाती है। यह बताती है कि अगर प्रशासन कमजोर पड़ता है तो भीड़ खुद को कानून समझने लगती है।
उत्तर प्रदेश के बरेली में चर्च के गेट पर बैठकर चालीसा पाठ किया गया। हिसार में 160 साल पुराने चर्च के सामने हवन-यज्ञ हुआ। मैं समझता हूं कि यह पूजा नहीं थी। यह चंद उन्मादी लोगों का शक्ति प्रदर्शन था। यह संदेश था कि हम यहां हैं और हम तुम्हें यह याद दिलाने आए हैं।
कुल जमा लगभग हर राज्य से ऐसी खबरें सामने आई हैं। ओडिशा में सांता कैप बेचने वाले गरीबों को धमकाया गया। केरल में कैरल गाने वाले बच्चों पर हमला हुआ। दिल्ली में महिलाओं को घेरकर धर्मांतरण के आरोप लगाए गए। लखनऊ में क्रिसमस डे के मौके पर चर्च से कुछ दूरी पर कीर्तन किया गया। ये अलग-अलग घटनाएं नहीं हैं। यह एक सुनियोजित सामाजिक माहौल है, जहां डर पैदा किया जा रहा है।
रामनवमी, हनुमान जयंती, मोहर्रम, क्रिसमस...अब हर पर्व के साथ प्रशासन सतर्क रहता है। क्यों? क्योंकि त्योहार अब शांति नहीं, तनाव लाते हैं। डीजे की तेज आवाज, उकसाने वाले नारे और धार्मिक शक्ति का प्रदर्शन आज की पहचान बनते जा रहे हैं। पत्रकार आनंद पांडेय
सीएसएसएस की रिपोर्ट चिंताजनक
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड सेक्युलरिज्म (सीएसएसएस) की रिपोर्ट और चिंता में डालती है। 'द वायर' में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार, साल 2024 में भारत में सांप्रदायिक दंगों के 59 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2023 में हुए 23 दंगों की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा हैं। इन घटनाओं में कुल 13 मौतें हुईं, जिसमें 10 मुस्लिम और 3 हिंदू मारे गए।
इन 59 दंगों में से महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 12 दंगे हुए। इसके बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में सात-सात दंगे हुए। यह रिपोर्ट कहती है कि ये घटनाएं बड़े पैमाने पर धार्मिक त्योहारों और जुलूसों के दौरान शुरू हुईं। इससे समझा जा सकता है कि कैसे धार्मिक उत्सवों का इस्तेमाल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है।
सोशल मीडिया उकसावे का सबसे बड़ा मंच
यह भारत की परंपरा नहीं है। यह आयातित कट्टरता है। आज व्हाट्सएप, फेसबुक और इंस्टाग्राम उकसावे के सबसे बड़े मंच बन गए हैं। आधे वीडियो, झूठा इतिहास और मनगढ़ंत कहानियां मिलकर ऐसी व्यूह रचना कर देती हैं कि समाज लहूलुहान हो जाता है।
यह डिजिटल जहर पहले दिमाग में उतरता है। फिर हाथ में लाठी बनता है। इन सबके बीच सबसे खतरनाक पहलू सत्ता की चुप्पी है। जब बहुसंख्यक उन्माद फैलाते हैं तो बयान गोल होते हैं। जब अल्पसंख्यक डरते हैं तो संवेदनाएं औपचारिक होती हैं। विपक्ष भी चुप है। उन्हें डर यह है कि कहीं वोट न खिसक जाएं। यह चुप्पी तटस्थता नहीं है। यह कायरता है। यह भारत का स्वभाव नहीं है।
भारत में सिर कलम करने जैसी कोई सजा नहीं
हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बरेली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा और धार्मिक उकसावे के मामले में मौलाना तौकीर रजा के गुर्गे नदीम को जमानत देने से दो टूक इनकार कर दिया है। अदालत ने सख्त लहजे में कहा कि भारत के कानून में सिर कलम करने जैसी कोई सजा नहीं। ऐसा नारा भारतीय विधि व्यवस्था को खारिज करने जैसा है। यह नारा भारत की परंपरा से नहीं, बल्कि पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून की पृष्ठभूमि से जुड़ा है।
मुझे यहां बाबा साहेब डॉ.भीमराव आंबेडकर की एक बात याद आती है। उन्होंने भी बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था कि मुझे वह धर्म स्वीकार है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सिखाता है। यह कोई आध्यात्मिक वाक्य नहीं है, यह सामाजिक कसौटी है। जिस धर्म के नाम पर डर फैलाया जाए, जिसके नाम पर इंसान को छोटा किया जाए, जिसके नाम पर भीड़ को खुली छूट मिले, वह धर्म नहीं, उन्माद का औजार बन जाता है।
एकता ही राष्ट्र की सबसे बड़ी ताकत
सरदार वल्लभभाई पटेल कहते थे कि एकता ही राष्ट्र की सबसे बड़ी ताकत है। एकता के बिना कोई भी देश लंबे समय तक टिक नहीं सकता। यह बयान आज और भी ज्यादा प्रासंगिक है। अगर एकता की जगह डर ले ले, अगर भरोसे की जगह शक बैठ जाए तो राष्ट्र भीतर से टूटता है। इसमें किसी बाहरी हमले की जरूरत ही नहीं होती, मगर अफसोस है कि आज के लोग इनमें भी खासकर युवा यह बात समझना ही नहीं चाहते हैं। हमारे सैनिक सीमाओं को पूरी ताकत से सुरक्षा दे रहे हैं, लेकिन देश के भीतर अजीब से हलचल हो रही है।
महात्मा गांधी कहते थे कि अगर हम एक-दूसरे से भलाई में प्रतिस्पर्धा करें तो समाज खुद ऊपर उठेगा। मैं कहता हूं, यह हिंसा का नहीं, यह श्रेष्ठता का रास्ता है। गांधी जी यह नहीं कहते कि विरोध खत्म कर दो, वे कहते हैं कि विरोध को हिंसा मत बनने दो। तो इस तरह आंबेडकर ने धर्म को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व से जोड़ा था। सरदार पटेल ने एकता को राष्ट्र की ताकत बताया था। गांधी जी ने अहिंसा को सबसे बड़ा साहस कहा था, मगर अफसोस है कि आज इन मूल्यों को कमजोर समझा जा रहा है।
सहनशीलता इस देश की लोकतांत्रिक आत्मा
मौजूदा दौर के ख्यातनाम गीतकार व पटकथा लेखक जावेद अख्तर बड़ी अच्छी बात कहते हैं। वे कहते हैं, हिंदू परंपरा और हिंदू संस्कृति की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वह इजाजत देती है...कुछ भी कहो, कुछ भी सुनो और कुछ भी मानो। यही खुलापन, यही सहनशीलता इस देश की लोकतांत्रिक आत्मा है। इसी वजह से भारत में लोकतंत्र जिंदा है।
जब हम इस मुल्क से निकलेंगे तो मेडिटेरियन कोस्ट तक डेमोक्रेसी नहीं मिलती। मगर मुझे हैरत होती है कि जो लोग ये कहते हैं कि पीके फिल्म में आपने हिन्दू धर्म के बारे में तो इतनी लिबर्टी ले ली... मुसलमानों के साथ लेते? तो क्या मुसलमानों जैसे बनना चाहते हो। कोशिश ये होनी चाहिए कि वो तुम्हारे जैसे हों और ये मुकाबला किससे है। जिस सोसाइटी में इस तरह का इन्टोलेरेंस है, वो सोसाइटी क्या हैं, जाकर देखो वहां।
पड़ोस में चले जाओ, ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। हमारा तो गुण ही यही है, हमारी तो खूबी यही है कि हम जो चाहे कह सकते हैं। आप दूसरों को ठीक कीजिए, खुद मत बर्बाद हो जाइए। मैं देख रहा हूं...आखिर किससे मुकाबला कर रहे हो, तालिबान से, अलकायदा से...साहब देखिए वो तो नहीं सुनते, वो तो मार डालते हैं, तो मतलब आप भी वैसे होना चाहते हैं। मत करो ऐसा, ये मुल्क बहुत महान है।
बेलूर से सामने आईं सुखद तस्वीरें
इसी के साथ पश्चिम बंगाल के बेलूर से सुखद तस्वीरें भी सामने आईं हैं। बेलूर मठ यानी रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय। पश्चिम बंगाल में हुगली नदी के किनारे इसकी स्थापना भारतीयता के क्रांतिकारी अग्रदूत स्वामी विवेकानंद ने 1897 में की थी। इस मठ में सभी धर्मों के त्योहार मनाए जाते हैं। लिहाजा, यहां क्रिसमस भी परम्परा के साथ मनाया गया।
रामकृष्ण परमहंस के मंदिर में ईसा मसीह (जीसस) की तस्वीर रखी गई और साधु, ब्रह्मचारियों ने ईसा मसीह की आरती की। इस अवसर पर बाइबिल का पाठ अंग्रेजी और बांग्ला दोनों भाषाओं में किया गया। क्रिसमस कैरल्स गाए गए। इस परंपरा की शुरुआत स्वयं स्वामी विवेकानंद ने की थी। ये तस्वीरें बता रही हैं कि यही है असली भारत और भारतीयता, जिसे तथाकथित न्यू इंडिया के जाहिलों और विषधरों का गिरोह बर्बाद करने पर तुला हुआ है।
हिंसक घटनाओं और उन्माद पर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को इस मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद करनी ही होगी। यहां किसी समाज, किसी मजहब की नहीं, बल्कि इंसानियत की बात है।
समाज की, योजनाकारों की चुप्पी पर केदार नाथ सिंह भी कहते हैं,
चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहां बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते हैं बाल
जैसे बढ़ते हैं नाखून
और आश्चर्य है कि
किसी को गड़ता तक नहीं...।
जय श्रीराम, अस-सलाम-अलैकुम, सत श्री अकाल, नमस्ते!
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Journalist Anand Pandey
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