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मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर खंडपीठ ने गंभीर चोट के मामलों में पुलिस की ढिलाई और आरोपियों को राहत पहुंचाने वाली कार्यप्रणाली पर सख्त रुख अपनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट आदेश जारी करते हुए प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (DGP) को निर्देश दिया है कि अब मारपीट या हमले के हर मामले में यदि पीड़ित को चोट लगी है तो थाने में उसकी फोटो ली जाए, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि केस में उचित धाराएं लगाई गई हैं या नहीं।
हाई कोर्ट ने जताई चिंता
न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि मध्यप्रदेश में यह “दोहराया जाने वाला पैटर्न” बन गया है, जिसमें पुलिस अधिकारी गंभीर चोट के मामलों में भी जानबूझकर हल्की धाराएं लगाते हैं। इसका उद्देश्य अभियुक्तों को प्रारंभिक स्तर पर अग्रिम जमानत दिलाने में मदद करना होता है। कोर्ट ने कहा कि ऐसी लापरवाही न्याय प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ है और इससे पीड़ित पक्ष को न्याय नहीं मिल पाता।
डॉक्टर्स को भी दिए निर्देश
कोर्ट ने आदेश में यह भी स्पष्ट किया कि पुलिस अधिकारियों के साथ डॉक्टरों की भी जिम्मेदारी है कि वे घायल व्यक्ति की स्थिति का उचित दस्तावेजीकरण करें और चोटों की तस्वीरें ली जाएं। इससे अदालत को साक्ष्य के आधार पर केस की गंभीरता समझने में आसानी होगी और आरोपी की जमानत याचिका पर सही निर्णय हो सकेगा।
शीतू का मामला बना आदेश की वजह
यह आदेश शीतू नामक व्यक्ति की अग्रिम जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान पारित किया गया। शीतू पर एक व्यक्ति को गंभीर चोट पहुंचाने का आरोप था, लेकिन पुलिस ने सिर्फ मामूली धाराओं में केस दर्ज किया। पुलिस की ओर से सफाई दी गई कि घटना रात की थी, इसलिए शिकायतकर्ता को तुरंत अस्पताल भेजा गया और फोटो नहीं लिए जा सके। कोर्ट ने इस तर्क को नकारते हुए कहा कि यह गंभीर लापरवाही है और साक्ष्य को कमजोर करने की प्रवृत्ति का हिस्सा है।
कोर्ट ने तीखी टिप्पणी की
शीतू और अन्य आरोपियों ने अग्रिम जमानत याचिका को निचली अदालत में आत्मसमर्पण करने की अनुमति की मांग के साथ वापस लेने का अनुरोध किया था, जिसे कोर्ट ने अनुमति दे दी। हालांकि इस केस को आधार बनाकर प्रदेशभर की पुलिस कार्यप्रणाली पर तीखी टिप्पणी की और नए दिशा-निर्देश जारी किए।
आदेश का व्यापक असर
इस आदेश के बाद अब प्रदेशभर के थानों में हर गंभीर चोट के मामले में फोटो लेना अनिवार्य हो जाएगा। साथ ही डॉक्टरों को भी तस्वीरों और रिपोर्ट के माध्यम से चोट की वास्तविकता को प्रमाणित करना होगा। कोर्ट के अनुसार, इससे फर्जी या कमजोर धाराओं में दर्ज मामलों की रोकथाम होगी और पीड़ितों को न्याय मिल सकेगा।
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