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Bhopal. मध्यप्रदेश का महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय अपनी मनमानी कार्यशैली के चलते लगातार विवादों में है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने इसे डिफाल्टर घोषित कर दिया है, लेकिन हालात यह हैं कि विश्वविद्यालय प्रबंधन राज्य सरकार तक के आदेशों को अनसुना कर रहा है।
सरकार के तीन पत्र, जवाब एक भी नहीं
सूत्रों के मुताबिक, उच्च शिक्षा विभाग ने 20 अगस्त और 9 सितंबर को कुलसचिव को पत्र लिखकर प्रबंधन बोर्ड की जानकारी मांगी थी, लेकिन विभाग को कोई जवाब नहीं मिला। इसी तरह गत 29 अगस्त को भेजे तीसरे पत्र में तो शिकायतों की जांच रिपोर्ट तक सात दिन में तलब की गई। मगर न तो जांच हुई और न ही कोई जवाब मिला। अव्वल तो, आरोपी से उस पर लगे आरोपों की जांच कराना हैरत पैदा करने वाला रहा, लेकिन इस मामले में भी विवि ने सरकार को ठेंगा दिखाने का काम किया।
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MP News: महर्षि महेश योगी विश्वविद्यालय की मनमानी के आगे सरकारी पत्र भी बेमानी
विभाग बेबस, अफसर खामोश
विभागीय अवर सचिव वीरेन सिंह भलावी साफ कहते हैं कि विवि ने तीनों पत्रों का अब तक कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन आगे क्या करेंगे, इस पर वह चुप्पी साध लेते हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर एक निजी विश्वविद्यालय के आगे पूरा विभाग क्यों बेबस है। द सूत्र उच्च शिक्षा विभाग की इस बेबसी को लगातार उजागर करता रहा है। इसके चलते विभागीय अधिकारियों ने साहस कर हाईकोर्ट जबलपुर में विगत 15 सालों से लंबित एक प्रकरण में अर्जेंट हियरिंग की अपील की, लेकिन इसमें फॉलोअप नहीं होने से विभाग की कोशिश महज औपचारिकता बनकर रह गई।
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अधिनियम की धज्जियां
1999 के संशोधित अधिनियम के अनुसार विवि को अपने संचालन के लिए पीठम यानी संस्था गठित करनी थी, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ। यही बड़ी वजह है कि UGC ने न केवल मध्य प्रदेश बल्कि छत्तीसगढ़ के विवि को भी डिफाल्टर घोषित किया। आयोग ने 34 शर्तों का प्रोफॉर्मा भेजा है, जिसमें प्रबंधन बोर्ड और संस्था की जानकारी अनिवार्य है, लेकिन विवि इन दोनों मोर्चों पर मात खा रहा है। विवि में लंबे समय से कुलाधिपति का पद रिक्त है। वहीं कुलपति डॉ. प्रमोद वर्मा मप्र व छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों के विश्वविद्यालयों का दायित्व संभाल रहे हैं।
संस्था गठन के सवाल पर कुलपति भी खामोश
कुलपति डॉ. प्रमोद वर्मा से जब विवि के संस्था के गठन को लेकर पूछा गया तो वह चुप्पी साध गए। वहीं, कुलाधिपति की नियुक्ति का मामला शासन स्तर पर लंबित बताकर उन्होंने जिम्मेदारी टाल दी। जबकि विभागीय रिकॉर्ड साफ बताते हैं कि शासन विश्वविद्यालय से फरवरी में ही तीन नामों की पैनल मांग चुका है, जो अब तक उपलब्ध नहीं कराई गई।
बड़ा सवाल यही कि राज्य सरकार और UGC के आदेशों की खुलेआम अनदेखी करने वाला विश्वविद्यालय आखिर किस आधार पर चल रहा है? बिना संस्था और जवाबदेही के न केवल नियमों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था भी कटघरे में है।