आपने वो कहावत तो सुनी ही होगी कि आगे पाठ और पीछे सपाट...। अमूमन ये पंक्तियों बच्चों की पढ़ाई के संदर्भ में ही कही जाती हैं, लेकिन मध्यप्रदेश के सरकारी अफसर भी मानों कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। देश का हृदय प्रदेश इन दिनों एजुकेशन की प्रयोगशाला बन गया है। सालभर, छह महीने में एक नया आदेश आता है और पुराने आदेश पर धूल चढ़ जाती है।
हुक्मरानों ने शिक्षा जैसे बुनियादी विषय को मजाक बनाकर रख दिया है। स्थायित्व और साफ दृष्टिकोण की जगह बार-बार के प्रयोग हो रहे हैं। समस्या का समाधान करने के बजाय इसे और जटिल बना दिया गया है। जब तक कोई योजना या प्रयोग फलदायी होता है, सरकार के बदलाव या नई नीतियों के कारण वह बीच में रुक जाता है या उस पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
स्कूल शिक्षा विभाग में नए मंत्री के साथ शिक्षा सुधार का नया कॉन्सेप्ट सामने आता है। उदाहरण के तौर पर कभी बच्चों को किताबों के बिना स्कूल भेजने का कॉन्सेप्ट तो कभी ऑनलाइन लर्निंग मॉडल लाए जाते हैं। सभाओं, भाषणों में स्मार्ट क्लासेस जैसे कॉन्सेप्ट पर जोर दिया जाता है, लेकिन दुर्भाग्य से इनका हश्र बुरा ही होता है।
पीपीपी मोड पर देने की तैयारी
अब मध्यप्रदेश में सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देने की तैयारी की जा रही है। बड़े स्कूल संचालक, निजी एजेंसियां अथवा कॉर्पोरेट घराने इन्हें पीपीपी मोड पर चलाएंगे। इसे लेकर स्कूल शिक्षा विभाग के स्तर पर मंथन शुरू हुआ है। प्रारंभिक खाका खींचा गया है। हालांकि अभी ये शुरुआती कदम हैं। इसका पूरा गणित क्या होगा, फिलहाल इसे लेकर स्थिति साफ नहीं है। हां, यह जरूर है कि यदि इसे अमलीजामा पहनाया गया तो मध्यप्रदेश इस तरह का प्रयोग करने वाला देश का पहला राज्य होगा। इस पूरी कवायद के पीछे सरकारी तर्क यह है कि इससे एजुकेशन सिस्टम और बेहतर होगा।
बजट से अटकी योजनाएं
अब यदि एजुकेशन में सरकार के पुराने प्रयोग देखे जाएं तो सबकी हालत खस्ता है। इस तथ्य का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शैक्षणिक सत्र शुरू हुए साढ़े तीन महीने बीत गए हैं, लेकिन अभी अक्टूबर में बच्चों को साइकिलें दी जा रही हैं। तीन महीने से बच्चे परेशान हो रहे थे। ऐसे ही दो साल पहले शिक्षकों को टेबलेट दिए गए थे, लेकिन ये कहां हैं, कितने खरीदे गए, कितना गोलमाल हुआ... इसकी किसी को कोई खबर ही नहीं है। यही हाल स्कूटी योजना का भी है। प्रदेश में 12वीं में स्कूल टॉप करने वाले एक छात्र और एक छात्रा को स्कूटी देनी की योजना है। पिछले साल सूबे में 7 हजार 790 बच्चों को स्कूटी दी गई थी। इस पर 79 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। इस बार ऐसे 25 हजार से ज्यादा टॉपर्स बच्चे हैं, जो स्कूटी योजना के लिए पात्र हैं, पर अब तक इस मामले में कोई कदम नहीं बढ़े हैं।
सरकारी स्कूलों में 12वीं में 75 फीसदी से ज्यादा अंक अर्जित करने वाले बच्चों को लैपटॉप के लिए 25 हजार रुपए दिए जाते हैं। बीते साल 78 हजार 641 बच्चों को राशि दी गई थी। इस बार ऐसे बच्चों की संख्या करीब 90 हजार है। इस योजना का भी कोई अता पता नहीं है।
पांच तरह के स्कूलों का कॉन्सेप्ट लगा चुकी सरकार
अब अफसर सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देने की तैयारी कर रहे हैं। आने वाले दिनों में सीएम डॉ.मोहन यादव के सामने यह प्रस्ताव रखा जाएगा। सीएम के स्तर पर फैसला होगा। यहां यह भी गौरतलब है कि प्रदेश में अब तक मॉडल स्कूल, एक्सीलेंस स्कूल, एकलव्य स्कूल, सीएम राइज स्कूल, पीएमश्री स्कूल जैसे कॉन्सेप्ट लाए जा चुके हैं। छात्रावास तो पहले से चल ही रहे हैं। स्मार्ट क्लासेज के भी खूब दावे हुए हैं, लेकिन धरातल पर सब मटियामेट है। सरकार के पास बजट और संसाधन दोनों की कमी है।
मोहंती लेकर आए थे पीपीपी मॉडल
आपको बता दें कि मध्यप्रदेश के पूर्व आईएएस एसआर मोहंती स्कूल शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव रहते सरकारी स्कूलों को पीपीपी मोड पर देने का प्लान लेकर आए थे, लेकिन तब इसका खासा विरोध हुआ था। इसके बाद विभाग और सरकार दोनों ने इस प्रोजेक्ट से कदम वापस खींच लिए थे। अब एक बार फिर यह मुद्दा उठा है। इधर, CM RISE स्कूलों के आसपास पांच किलोमीटर के दायरे में बने अन्य सरकारी स्कूलों को बंद करने की भी तैयारी थी। लोक शिक्षण संचालनालय यानी डीपीआई ने अगस्त में सरकारी स्कूलों के बच्चों को सीएम राइज स्कूल में एडमिशन करवाने के निर्देश दिए थे, लेकिन बाद में यह मामला भी अधर में ही रहा।
सीएम राइज स्कूलों में बजट की कमी आ रही आड़े
ताजा मामला तो सीएम राइज स्कूलों का है। जोर शोर से प्रचार प्रसार के बाद सूबे में राइज राइज स्कूलों का कॉन्सेप्ट लाया गया था। सरकार का दावा है कि पहले चरण में मध्यप्रदेश में 270 सीएम राइज स्कूलों की बिल्डिंग निर्माण को मंजूरी दे दी गई है। इनमें से 247 स्कूलों का काम शुरू हो गया है, लेकिन हकीकत यह है कि बजट की कमी से इनका काम पिछड़ रहा है। इसके इतर सरकार कह रही है कि वर्ष 2024-25 में प्रदेश में 122 सीएम राइज स्कूलों की बिल्डिंग बन जाएगी।
38 जिलों के 355 स्कूलों में जीरो ईयर
सूबे में सरकारी स्कूलों का हाल भी बेहाल है। बच्चों को मुफ्त किताबें, ड्रेस और मिड डे मील के बाद भी साल-दर-साल नामांकन की संख्या कम हो रही है। कई स्कूलों में जीरो ईयर हो गया है। मतलब, इन स्कूलों में एक भी बच्चे ने एडमिशन नहीं लिया है। पिछले साल के मुकाबले इस साल पहली से 12वीं तक में सरकारी और निजी स्कूलों में 1 करोड़ 21 लाख बच्चों ने एडमिशन लिया है। पिछले साल यह आंकड़ा 1 करोड़ 37 लाख था।
प्रदेश के प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में भवन से लेकर अन्य मूलभूत सुविधाओं की कमी है। छह हजार भवन क्षतिग्रस्त हैं। करीब 21 हजार स्कूल एक शिक्षक के भरोसे संचालित हो रहे हैं। 38 जिलों के 355 से अधिक सरकारी स्कूलों में इस सत्र में एक भी प्रवेश नहीं हुआ है।
द सूत्र व्यू
शिक्षा नीतियों में बार-बार किए जा रहे प्रयोगों का सबसे बड़ा असर शिक्षकों और छात्रों पर पड़ता है। जब तक शिक्षक एक नई नीति के साथ तालमेल बैठाते हैं, एक नया प्रयोग उनकी तैयारियों को फिर से बदल देता है। छात्रों की शिक्षा प्रक्रिया में भी अस्थिरता आती है, इससे उनकी समझ और परिणामों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे न केवल परीक्षा परिणाम प्रभावित होते हैं, बल्कि विद्यार्थियों के मानसिक विकास पर भी असर पड़ता है।
शिक्षा क्षेत्र में अस्थिरता को खत्म करने के लिए सरकार को दीर्घकालिक योजनाएं बनानी होंगी और उन्हें चरणबद्ध तरीके से लागू करना होगा। इसके साथ ही, नीतियों का क्रियान्वयन बिना राजनैतिक हस्तक्षेप के होना चाहिए, ताकि हर नए मंत्री के साथ ही योजनाओं में बदलाव न किया जाए। स्थानीय जरूरतों और संसाधनों का ध्यान रखते हुए ही किसी नई योजना को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। साथ ही, शिक्षकों का प्रशिक्षण नियमित और बेहतर तरीके से करना होगा, ताकि वे नई योजनाओं को सही ढंग से समझ सकें और लागू कर सकें।
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