हाईकोर्ट ने की निजी स्कूलों पर कार्रवाई निरस्त, कहा- अधिकारियों ने दायरे से बाहर जाकर किया शक्ति का दुरुपयोग

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने निजी स्कूलों पर प्रशासनिक कार्रवाई को निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि राज्य अधिकारियों ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर शक्ति का दुरुपयोग किया। यह कदम स्कूल प्रबंधन के अधिकार में हस्तक्षेप था।

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Neel Tiwari
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Photograph: (thesootr)

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JABALPUR. निजी स्कूलों की फीस वसूली को लेकर चल रहे विवाद में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने प्रशासनिक कार्रवाई पर तीखी टिप्पणी की है। हाईकोर्ट ने जस्टिस विवेक रूसिया और जस्टिस प्रदीप मित्तल की डिविजनल बेंच ने कहा कि राज्य के अधिकारियों ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर शक्ति का दुरुपयोग किया।

कोर्ट ने माना कि जिस तरह से प्रशासन ने निजी स्कूलों के खिलाफ कदम उठाए, वह कानून के दायरे में नहीं आता। इसी आधार पर फीस वापस कराने से जुड़ा आदेश निरस्त कर दिया गया।

निजी स्कूलों ने की थी कार्रवाई के खिलाफ अपील

जबलपुर के दो दर्जन से अधिक निजी स्कूल संचालकों ने कथित मनमानी फीस वसूली के नाम पर दर्ज किए गए आपराधिक प्रकरणों को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट में अपील दायर की थी। इनमें से अधिकांश स्कूल मिशनरी संस्थाओं द्वारा संचालित हैं।

जिला प्रशासन की शिकायत पर पुलिस ने स्कूल प्रबंधन से जुड़े व्यक्तियों और प्राचार्यों के खिलाफ प्रकरण दर्ज कर गिरफ्तारी तक की कार्रवाई की थी। यह पूरा घटनाक्रम उस समय प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय मीडिया में भी सुर्खियों में रहा।

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सुनवाई के दौरान कोर्ट की सख्त टिप्पणी

मामले की सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने बेहद तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि यदि किसी अभिभावक को निजी स्कूलों की फीस अधिक लगती है, तो वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं दाखिल कराते। कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि प्रशासन ने भावनात्मक माहौल बनाकर कानून की हद से बाहर जाकर कदम उठाए, जिससे समस्या सुलझने के बजाय और अधिक उलझ गई।

प्रशासनिक दखल को बताया गैरकानूनी

अंतिम आदेश में डिविजनल बेंच ने साफ कहा कि फीस तय करना और स्कूल संचालन से जुड़े निर्णय लेना स्कूल मैनेजमेंट या सोसाइटी का अधिकार है। राज्य के अधिकारियों को न तो फीस तय करने का अधिकार है और न ही अलग-अलग निर्देश जारी करने का। कोर्ट ने माना कि प्रशासन की यह कार्रवाई सीधे तौर पर स्कूलों के प्रबंधन में दखल के समान है, जो कानूनन स्वीकार नहीं की जा सकती है।

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गलत हैंडलिंग से बिगड़ा माहौल

हाईकोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि स्थानीय प्रशासन द्वारा पूरे मामले को जिस तरीके से हैंडल किया गया, उससे स्कूल प्रबंधन और अभिभावकों के बीच तनाव और मतभेद पैदा हुए। इसका सीधा असर छात्रों की पढ़ाई और उनके भविष्य पर पड़ा।

कोर्ट के अनुसार, इस विवाद को 2017 के अधिनियम और 2020 के नियमों के तहत संतुलित और विधिसम्मत तरीके से सुलझाया जा सकता था। इस मामले की पिछली सुनवाई में हाईकोर्ट ने इसे हार्ड एंड रिजर्व रखा था। सोमवार को इस मामले का आदेश सामने आया है।

पेरेंट्स एसोसिएशन की आपत्ति खारिज

फीस विवाद मामले में मध्य प्रदेश पेरेंट्स एसोसिएशन ने भी आपत्ति दर्ज कराई थी। जब कोर्ट ने संगठन के रजिस्ट्रेशन और सदस्यों की जानकारी मांगी, तो संघ के अध्यक्ष सचिन गुप्ता यह विवरण देने में असफल रहे।

कोर्ट ने संगठन को स्वघोषित बताते हुए उसकी आपत्ति खारिज कर दी और कहा कि आपत्ति दर्ज करने के लिए वैधानिक आधार होना आवश्यक है। हालांकि, मामले में पेरेंट्स एसोसिएशन का तर्क यह है कि अधिनियम की धाराओं का सही विश्लेषण कोर्ट के द्वारा नहीं किया गया। पेरेंट्स एसोसिएशन अब इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने की तैयारी में जुटा हुआ है।

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नेशनल मीडिया में छाया था मामला

जबलपुर के तत्कालीन कलेक्टर दीपक सक्सेना के कार्यकाल में की गई इस कार्रवाई ने उस समय राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचा था। प्रशासनिक सख्ती और गिरफ्तारी की तस्वीरें देशभर में चर्चा का विषय बनी थीं। हालांकि, इतने वर्षों बाद भी इस कार्रवाई का ठोस फायदा अभिभावकों या छात्रों को मिलता नजर नहीं आ रहा है।

अभिभावकों को अब तक नहीं मिली राहत

अदालत के पूर्व आदेशों के बावजूद 10 प्रतिशत से अधिक ली गई फीस आज तक किसी भी अभिभावक को वापस नहीं मिली है। अभिभावकों का आरोप है कि कथित अवैध फीस दिए बिना बच्चों को परीक्षा में बैठने तक में परेशानी होती है। उनके अनुसार, पूरी कार्रवाई केवल प्रशासनिक वाहवाही तक सीमित रह गई।

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फीस वृद्धि की तारीख अब भी विवाद में

पूरे विवाद की जड़ फीस वृद्धि की समय-सीमा है। सवाल यह है कि 10 प्रतिशत तक अधिकृत फीस वृद्धि वर्ष 2017 से मानी जाए या कोविड प्रभावित वर्ष 2021 से। यह मुद्दा अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है। अभिभावकों का कहना है कि इस पूरे मामले में हर पक्ष ने सुर्खियां तो बटोरीं, लेकिन जमीनी स्तर पर न तो छात्रों को और न ही उनके माता-पिता को कोई वास्तविक राहत मिल पाई।

सरकार ने अपना पक्ष प्रभावी ढंग से नहीं रखा

इस पूरे प्रकरण में महाधिवक्ता कार्यालय की भूमिका भी सवालों के घेरे में आ गई है। जिस स्कूल फीस अधिनियम को स्वयं मध्य प्रदेश सरकार ने बनाया, उसी के तहत जिला प्रशासन ने कार्रवाई की थी। इसके बावजूद हाई कोर्ट में सरकार अपना पक्ष प्रभावी ढंग से रख पाने में असफल रही।

अदालत के समक्ष न तो कार्रवाई को ठोस कानूनी आधार पर सही ठहराया जा सका और न ही यह स्पष्ट किया जा सका कि अधिनियम और नियमों के तहत अधिकारियों को किस सीमा तक अधिकार प्राप्त थे। नतीजतन, सरकारी वकील न्यायालय को संतुष्ट करने में विफल रहे और इसका सीधा लाभ निजी स्कूलों को मिला, जिससे पूरी प्रशासनिक कार्रवाई अदालत की कसौटी पर टिक नहीं सकी।

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