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ओबीसी अभ्यर्थियों के आरक्षण को लेकर दायर याचिका में MPPSC और मध्य प्रदेश सरकार की ओर से दाखिल किया गया जवाब सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए जवाब में जहां सरकार ने 13% होल्ड के पीछे के कारणों को बताया है। वहीं एमपीपीएससी ने इस याचिका को प्रीमेच्योर बताते हुए खारिज करने की मांग रखी है। इसके बाद अब एमपीपीएससी पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लग रहा है।
मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण को लेकर जारी विवाद सुप्रीम कोर्ट तक तो पहले ही पहुंच चुका है। इस आरक्षण को लागू करने के लिए लगाई गई याचिका क्रमांक WP 606/2025 में ओबीसी अभ्यर्थियों ने 27% आरक्षण लागू करने और 13% होल्ड रिजल्ट को नियमित करने की मांग की है। इस मामले की सुनवाई 22 सितंबर से शुरू होनी है। लेकिन सुनवाई से पहले ही सरकार और मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग (MPPSC) द्वारा दाखिल जवाबी हलफनामों ने अभ्यर्थियों की चिंता और बढ़ा दी है।
MPPSC ने की याचिका खारिज करने की मांग
सुप्रीम कोर्ट में आयोग की ओर से दाखिल हलफनामा उप परीक्षा नियंत्रक सुशांत पुनेकर ने प्रस्तुत किया। इसमें कहा गया कि यह याचिका समयपूर्व (premature) है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण से जुड़ा मामला पहले से ही मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में विचाराधीन है।आयोग ने माना कि 29 सितंबर 2022 की अधिसूचना हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश के अनुपालन में जारी हुई थी। इस आदेश के तहत 87% पदों का परिणाम घोषित कर दिया गया था, जबकि शेष 13% पदों का परिणाम अदालत के अंतिम फैसले तक रोक दिया गया।
आयोग ने दलील दी कि वह सिर्फ एक भर्ती एजेंसी है, जो राज्य सरकार के निर्देशों के अनुसार चयन करती है। आयोग के अनुसार, याचिकाकर्ताओं का यह कहना कि उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है, अभी काल्पनिक और अपरिपक्व है।अंत में आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि इस याचिका को खारिज किया जाए क्योंकि इसमें “कोई दम नहीं है।”
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हाईकोर्ट के आदेश का किया पालन - राज्य सरकार
राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि— 29.09.2022 की अधिसूचना पूरी तरह हाईकोर्ट के आदेश के तहत जारी की गई थी। इस अधिसूचना के अनुसार 87% पदों का परिणाम घोषित कर दिया गया, जबकि 13% पदों को अलग से होल्ड किया गया है। इनमें से 13% ओबीसी और 13% अनारक्षित श्रेणी की अलग-अलग सूचियां बनाई जाएंगी। सरकार ने दलील दी कि यह कदम उचित वर्गीकरण और बुद्धिगम्य अंतर (reasonable classification and intelligible differentia) के सिद्धांत पर आधारित है। सरकार की ओर से बताया गया कि हाईकोर्ट ने भी अपने आदेश में न्याय की अवधारणा को समझाते हुए “अज्ञानता का पर्दा (Veil of Ignorance)” का उल्लेख किया था, जिसमें कहा गया कि न्याय के सिद्धांत ऐसे होने चाहिए जिनसे किसी को भी उसकी सामाजिक स्थिति या संयोगवश मिली सुविधाओं के आधार पर न तो अतिरिक्त फायदा हो और न ही नुकसान।
सरकार का कहना है कि अगर यह व्यवस्था न की जाती तो 2020 और 2022 की परीक्षाओं में शामिल हजारों अभ्यर्थियों की नियुक्तियां वर्षों तक अटकी रहतीं। इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की है कि याचिकाकर्ताओं को न तो अंतरिम राहत दी जाए और न ही मुख्य राहत।
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आयोग ओबीसी विरोधी हो गया, अधिवक्ता ने लगाए आरोप
वरिष्ठ अधिवक्ता रामेश्वर ठाकुर ने आयोग के जवाब को कठघरे में खड़ा किया। उनका कहना है कि
"आयोग को सिर्फ इतना कहना चाहिए था कि वह भर्ती एजेंसी है और अदालत का जो भी आदेश होगा, उसके अनुसार कार्य करेगा। लेकिन आयोग ने सीधे तौर पर याचिका खारिज करने की मांग कर दी। यह तटस्थता छोड़कर ओबीसी विरोधी रुख अपनाने जैसा है।"
OBC अभ्यर्थियों में नाराजगी
ओबीसी अभ्यर्थियों का कहना है कि सरकार और आयोग की कथनी-करनी में भारी फर्क है। एक ओर सरकार सार्वजनिक रूप से आरक्षण के पक्ष में बयान देती है, वहीं अदालत में दाखिल हलफनामे में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ आपत्ति दर्ज करती है। अभ्यर्थियों का मानना है कि यह रवैया उन्हें लंबे समय तक न्याय से वंचित रखने की साजिश है।
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