राजनीतिक रंजिश के चलते लगवाया पॉक्सो एक्ट, मासूम बच्ची को बनाया था मोहरा

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक मामले में ‘राजनीतिक बदले की सुनियोजित साजिश’ करार देते हुए आरोपी को बरी कर दिया। कोर्ट ने साफ किया कि पीड़िता, जो मानसिक रूप से कमजोर है। उसे झूठे आरोपों के लिए एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया गया।

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Neel Tiwari
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Photograph: (THESOOTR)

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मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने पॉक्सो एक्ट के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति को बरी कर दिया है। कोर्ट ने इसे साजिश का हिस्सा माना। अदालत ने मामले को ‘राजनीतिक बदले की साजिश’ करार दिया। पीड़िता, जो मानसिक रूप से कमजोर थी, को झूठे आरोपों के लिए एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया गया है।

यह आदेश न सिर्फ उस आरोपी व्यक्ति को इंसाफ दिलाया है, बल्कि एक ऐसा उदाहरण भी है जो बताता है कि जब राजनीति और वर्चस्व की लड़ाई, इंसानियत की सीमाएं लांघती है, तो कोर्ट ही आखरी सहारा बनती है। 

जिला अदालत से मिली थी 20 साल की सजा

इस मामले की शुरुआत 8 दिसंबर 2022 को हुई थी, जब दमोह की एक नाबालिग छात्रा ने शिकायत करते हुए , पूर्व सरपंच पर गंभीर यौन शोषण का आरोप लगाया था। लड़की ने पुलिस को बताया था कि जब वह सुबह स्कूल जा रही थी, तो आरोपी ने उसे दुकान के अंदर बुलाया और वहां गलत हरकत की।

मामले की सुनवाई दमोह की विशेष पॉक्सो अदालत में हुई, जहां पीड़िता के प्रारंभिक बयान और कुछ अन्य साक्ष्यों के आधार पर आरोपी को दोषी माना गया। अदालत ने 12 सितंबर 2024 को अपना फैसला सुनाते हुए उसे 20 वर्ष की कठोर कैद और भारी जुर्माने की सजा सुनाई। 

हाईकोर्ट की सुनवाई में खुला पूरा घटनाक्रम

जब यह मामला अपील के जरिए  हाईकोर्ट पहुंचा तो सुनवाई के दौरान कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए, जिनसे साफ हुआ कि आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप केवल शक और साजिश पर आधारित थे। कोर्ट के सामने रखे गए दस्तावेज़ों, मेडिकल रिपोर्ट, फॉरेंसिक सबूतों और प्रत्यक्ष गवाहों के बयानों से यह साबित हो गया कि यह कोई अपराध नहीं था, बल्कि राजनीति से प्रेरित एक गहरी साजिश थी। जिसमें एक मासूम बच्ची को राजनीतिक औजार बना दिया गया।

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मेडिकल रिपोर्ट ने खड़े किए सवाल

मामले की जांच के दौरान पीड़िता का डॉक्टरी परीक्षण करवाया गया, जिसकी रिपोर्ट ने अभियोजन की पूरी कहानी को पहली बार कमजोर किया। जांच करने वाली डॉक्टर श्रद्धा गांगेले  ने अदालत को बताया कि पीड़िता के शरीर पर कोई बाहरी या आंतरिक चोट के निशान नहीं पाए गए। न तो खरोंच, न रक्तस्राव और न ही कोई आघात के निशान।

ये सभी वह संकेत होते हैं जो सामान्यतः जबरन यौन शोषण के मामलों में देखे जाते हैं। रिपोर्ट में एक सामान्य टिप्पणी जरूर थी कि “यौन दुर्व्यवहार से इनकार नहीं किया जा सकता”, लेकिन कोर्ट ने इसे वैज्ञानिक पुष्टि के अभाव में स्वीकार नहीं किया। यह पहली कड़ी थी, जिससे अभियोजन की विश्वसनीयता डगमगाने लगी।

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FSL रिपोर्ट में नहीं मिले प्रमाण

इसके बाद न्यायालय में प्रस्तुत की गई फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (FSL) की रिपोर्ट ने अभियोजन की जड़ें पूरी तरह हिला दीं। रिपोर्ट में साफ कहा गया कि पीड़िता के अंडरवियर, योनि स्लाइड, स्वैब और प्यूबिक हेयर के नमूनों पर वीर्य का कोई अंश नहीं पाया गया।

यदि कोई यौन संपर्क या हमले का दावा किया जा रहा है, तो पीड़िता के शरीर या कपड़ों पर इसका जैविक प्रमाण मिलना चाहिए। जब FSL की रिपोर्ट ने इन तमाम संभावनाओं को खारिज कर दिया, तो यह साफ हो गया कि मामला केवल झूठे आरोपों तक ही सीमित है।

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पीड़िता ने खुद बताया साजिश का सूत्रधार

हाईकोर्ट की सुनवाई में सबसे चौंकाने वाला मोड़ तब आया जब पीड़िता ने कोर्ट में यह कबूल किया कि पूरी कहानी उसे किसी और ने सिखाई थी। उसने साफ-साफ बताया कि गांव के ही एक पूर्व सरपंच राजेंद्र सिंह ने उसे यह कहानी गढ़ने के लिए कहा था। राजेंद्र सिंह की आरोपी से राजनीतिक रंजिश थी और दोनों में लंबे समय से गांव में वर्चस्व को लेकर संघर्ष चलता आ रहा था।

पीड़िता ने यह भी बताया कि पुलिस थाने में उसने वही कहानी दोहराई जो सरपंच राजेंद्र सिंह ने उसे सिखाई थी। इस कबूलनामे ने मामले को राजनीति साजिश को कोर्ट के सामने ला दिया।

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पीड़िता की मां और दादा ने भी खोला राज

सिर्फ पीड़िता ही नहीं, उसकी मां (PW/12) और दादा (PW/13) ने भी अदालत में वही सच उजागर किया। पीड़िता की मां ने कहा कि उन्होंने पुलिस में जो बयान दिया, वह उनकी बेटी की कही बात नहीं थी, बल्कि राजेंद्र सिंह ने उन्हें जो बताया, वही उन्होंने कहा। इतना ही नहीं, रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए उन्हें पुलिस स्टेशन तक ले जाने वाला भी वही राजेंद्र सिंह था।

इसके साथ ही दोनों ने यह भी स्वीकार किया कि पीड़िता मानसिक रूप से कमजोर है और किसी के भी कहने में आ सकती है। इस तरह अदालत के सामने एक पूरी तस्वीर उभरकर आ गई जिसमें साफ हो गया कि यह मामला राजनीतिक द्वेष के चलते तैयार की गई एक योजना थी।

अंदाजा और भावनाएं नहीं, सबूत चाहिए

इस मामले की सुनवाई जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस ए के सिंह की डिविजनल बेंच में हुई। सभी पक्षों की दलीलें और प्रस्तुत साक्ष्य देखने के बाद न्यायालय ने यह साफ कहा कि निचली अदालत की दोषसिद्धि केवल अनुमान, भावनात्मक बयान के आधार पर की गई थी। न कोई डॉक्टरी प्रमाण था, न फॉरेंसिक समर्थन और न ही कोई स्वतंत्र गवाह।

अदालत ने दो टूक शब्दों में कहा कि किसी व्यक्ति को सजा केवल इसलिए नहीं दी जा सकती कि उस पर गंभीर आरोप लगे हैं  कि जब तक कि उन आरोपों की पुष्टि ठोस सबूतों से न हो। इसी आधार पर अदालत ने आरोपी को यौन शोषण और POCSO अधिनियम के तहत लगाए गए सभी आरोपों से पूरी तरह बरी कर दिया।

इस मामले में तो आरोपी बनाए गए व्यक्ति को इंसाफ मिल गया। इस साजिश को रचने वाले व्यक्ति पर कोई कार्यवाही नहीं हुई है। इस तरह के मामले पॉक्सो जैसे संवेदनशील अधिनियम के दुरुपयोग पर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं।

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