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राज्य सरकार मप्र विधानसभा के मौजूदा सत्र में ही एक बिल पेश करने जा रही है। इसके तहत सहकारिता अधिनियम की धारा 49 (7) में संशोधन किया जाएगा। बिल में प्रावधान होगा कि प्रदेश की सहकारी समितियों व संस्थाओं के चुनाव सरकार अपनी सहुलियत के लिहाज से करवा सकेगी। चुनाव नहीं होने की स्थिति में समितियों में प्रशासक नियुक्त रहेंगे।
नियम बदलने की अहम वजह
संशोधित अधिनियम में दूसरा बड़ा बदलाव,सहकारी समितियों के निजीकरण का है। इसके तहत सहकारी समिति अपने व्यवसाय या क्षेत्र विशेष में सहकारी निजी-सार्वजनिक भागीदारी कर सकेगी। समितियां इसके लिए प्रस्ताव पेश करेंगी।जिसमें निजी क्षेत्र की पूंजी लगाने और लाभांश की हिस्सेदारी का फाॅर्मूला भी तय रहेगा।
अमूल की भागीदारी से हुई शुरुआत
दरअसल,बीते माह संपन्न जीआईएस में सहकारिता क्षेत्र में करीब सवा दो हजार करोड़ से अधिक के निवेश प्रस्ताव सरकार को मिले हैं। इसके लिए 15 एमओयू भी हुए। पूंजी निवेशक कंपनियां इन समितियों से कच्चा माल लेने से लेकर इनके माध्यम से अपने उत्पाद बेच सकेंगी। पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर राज्य सरकार बीते दिनों डेयरी क्षेत्र में कर चुकी है। जब मप्र स्टेट डेयरी फेडरेशन को आनंद गुजरात के राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अधीन किया गया। यह बोर्ड अमूल ब्रांड के डेयरी उत्पाद भी बनाता है। इस भागीदारी का विरोध करने पर सरकार ने तब एमपी स्टेट डेयरी फेडरेशन के प्रबंध संचालक गुलशन बामरा को भी रातोंरात उनके पद से हटा दिया था।
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मध्य प्रदेश में सहकारिता का बड़ा नेटवर्क
मप्र में सहकारिता का बड़ा नेटवर्क है। इनमें अपेक्स बैंक व इसकी 24 शाखाओं सहित 13 शीर्ष सहकारी संस्थाएं,इनके अधीन 38जिला सहकारी केंद्रीय बैंक,38 जिला ग्रामीण बैंक,विपणन संघ में 262 प्राथमिक विपणन संस्थाएं,आवास क्षेत्र में 975 हाउसिंग सोसायटीज,पीडीएस वितरण के लिए उपभोक्ता क्षेत्र में अनेक उपभोक्ता भंडार,3 प्रियदर्शिनी केंद्र,बीज वितरण क्षेत्र में 2388 इकाइयां,दूध उत्पादन क्षेत्र में हजारो की संख्या में सहकारी दुग्ध उत्पादक इकाईयां,मछली उत्पादन में सैकडों की संख्या में मछुआरा संघ एवं कृषि क्षेत्र में ग्राम स्तर पर 4538 प्राथमिक सहकारी समितियां है। इनके अलावा जल उपभोक्ता संथा भी सहकारिता क्षेत्र में कार्यरत हैं।
केंद्र से हुए अनुबंध की भी फिक्र नहीं
संविधान के 97वें संशोधन में स्पष्ट है कि सहकारिता के क्षेत्र में काम करने वाली समितियों में पद खाली होने की स्थिति में छह माह के भीतर चुनाव कराए जाएं। यही नहीं,साल 2008 में जब राज्य के सहकारी बैंक मरणासन्न हालत में पहुंच गए,तब केंद्र से आार्थिक मदद पाने की गरज से राज्य सरकार ने प्रो.वैद्यनाथन कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार से एक अनुबंध किया था। इसके आधार पर राज्य को तब करीब नौ सौ करोड़ रुपए की मदद भी मिली।
शर्त यही थी,कि सहकारी संस्थाओं में निर्वाचित संचालक मंडल के साथ ही सरकारी अधिकारी की भी जिम्मेदारी तय होगी कि भविष्य में यदि इन संस्थाओं में कोई घपला-घोटाला होता है तो इनकी जवाबदेही तय हो। सहकारी बैंकों में घपले तो रुके नहीं,लेकिन सरकार ने अब एक कदम आगे बढ़कर इस अनुबंध से ही मुंह मोड़ने की तैयारी कर ली है।
हाईकोर्ट के आदेश का भी पालन नहीं
मध्य प्रदेश की सभी सहकारी समितियों,संस्थाओं के संचालक मंडलों का कार्यकाल साल 2018 में पूरा हो गया। इसके बाद इनमें प्रशासक नियुक्त किए गए। वह साल और अब 2025, सात साल बीत गए। इस दौरान बीजेपी ही नहीं कांग्रेस की भी सरकार बनी,लेकिन सहकारी समितियों में चुनाव नहीं हो सके। कभी आम चुनाव इसकी वजह बने तो कभी दलगत सियासत। बहरहाल, चुनाव लगातार टलने पर मामला जबलपुर हाईकोर्ट पहुंचा। इस पर 20 दिसंबर 2023 को उच्च न्यायालय ने एक आदेश जारी कर 10 मार्च 2024 तक चुनाव कराने के आदेश दिए। मध्य प्रदेश सहाकारिता विभाग ने चुनावी कार्यक्रम भी जारी किया,लेकिन बाद में इसे भी वापस ले लिया गया। इस तरह,सात साल गुजर गए,सहकारी बैंक व समितियों की व्यवस्था अब भी प्रशासकों के हाथों में हैं।
क्या कहता है संविधान,नियम
संविधान के 97वें संशोधन में स्पष्ट है कि सहकारिता के क्षेत्र में काम करने वाली समितियों में पदाधिकारियों के पद 6 महीने से ज्यादा खाली नहीं रह सकते हैं। मध्य प्रदेश सहकारिता अधिनियम में यह अवधि 6 माह से दो साल है।