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संथारा जैन धर्म की एक महत्वपूर्ण प्रथा है, जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के अंतिम समय में बुरी आदतें और इच्छाएं त्यागता है। इसे मृत्यु से पहले आत्मनिर्वाण माना जाता है। यह प्रथा पवित्र मानी जाती है, लेकिन इसके लिए सहमति अनिवार्य होती है। जब बात बच्चे की आती है, तो यह सवाल उठता है कि क्या वह ऐसे गंभीर निर्णय पर सहमति दे सकता है?
इससे संबंधित एक याचिका मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में दायर की गई है। याचिकाकर्ता ने यह सवाल उठाया कि एक तीन साल की बच्ची, जो ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित है, संथारा जैसे गंभीर निर्णय पर सहमति कैसे दे सकती है? इस याचिका में मांग की गई है कि अवयस्क बच्चों के लिए संथारा पर रोक लगाई जाए और जो लोग बच्चों को इस प्रथा के तहत सहमति दिलवाते हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए।
वियाना, जो इंदौर के पीयूष और वर्षा जैन की साढ़े तीन साल की बेटी थी, ब्रेन ट्यूमर जैसी गंभीर बीमारी से जूझ रही थी। 21 मार्च को वियाना को संथारा दिलवाने के लिए राजेश मुनि महाराज के पास ले जाया गया था। इस दौरान उसकी स्थिति बेहद नाजुक थी और उसके माता-पिता के अनुसार, वह एक रात भी गुजारने में असमर्थ थी। इस स्थिति में उन्होंने संथारा की सहमति दी और गुरुदेव ने उसकी प्रक्रिया पूरी की। केवल 10 मिनट बाद वियाना का निधन हो गया।
इस घटना को लेकर कई सवाल उठे हैं। विशेष रूप से यह कि इतनी छोटी उम्र में वियाना ने इस निर्णय पर सहमति कैसे दी। इसके अलावा, क्या किसी अवयस्क बच्चे को इस प्रकार के गंभीर धार्मिक निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए?
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इस मामले में हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के तर्कों को सुना और वियाना के माता-पिता को इस मामले में पक्षकार बनाने का आदेश दिया। कोर्ट ने यह भी पूछा कि वह कौन सा एसोसिएशन है जिसने वियाना के माता-पिता को गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स का प्रमाणपत्र प्रदान किया था। याचिका में कहा गया है कि बच्चों को इस प्रकार के निर्णय लेने की क्षमता नहीं हो सकती, खासकर जब वे गंभीर मानसिक और शारीरिक स्थितियों से गुजर रहे हों।
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संथारा जैन धर्म में एक महत्वपूर्ण धार्मिक प्रथा मानी जाती है। यह प्रथा आत्मनिर्वाण की दिशा में एक कदम है, जहां व्यक्ति अपने शरीर और मानसिक इच्छाओं को त्याग कर भगवान के प्रति समर्पित हो जाता है। जैन धर्म में इस प्रक्रिया को पवित्र माना जाता है, लेकिन इसके लिए व्यक्तिगत सहमति जरूरी होती है।
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जैन धर्म के अनुसार, संथारा लेने वाले व्यक्ति की पूर्ण सहमति आवश्यक होती है। यह प्रथा उन्हीं लोगों के लिए है जो अपनी मर्जी से इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं। अवयस्क या मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति इस निर्णय को कैसे ले सकते हैं, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है, जिसका जवाब फिलहाल स्पष्ट नहीं है।
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वियाना के मामले में कई कानूनी पहलू सामने आए हैं। इस प्रकार के मामलों में बच्चों की सहमति की वैधता पर सवाल उठते हैं। क्या अवयस्क बच्चों को धार्मिक या जीवन-मृत्यु से जुड़ी प्रथाओं में शामिल किया जा सकता है? इसके अलावा, इस मामले में उसके माता-पिता द्वारा दी गई सहमति की कानूनी वैधता पर भी विचार किया जाएगा।
कानूनी दृष्टिकोण से यह सवाल उठता है कि अवयस्क बच्चों को किसी भी धार्मिक प्रक्रिया में शामिल करने से पहले उनकी मानसिक स्थिति का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। एक तीन साल की बच्ची को संथारा जैसे गंभीर निर्णय पर सहमति देने की अनुमति देना कानूनी रूप से सही नहीं हो सकता। ऐसे मामलों में बच्चों की सहमति पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
जबलपुर
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