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Photograph: (the sootr)
अमरपाल सिंह वर्मा @ हनुमानगढ़
हमारे देश की पहचान उसकी समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर से है, लेकिन अक्सर यही धरोहरें उपेक्षा का शिकार हो जाती हैं। हाल ही में राजस्थान के श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिले से निकली एक अनोखी यात्रा ने इस स्थिति को बदलने का संकल्प लिया है।
यह यात्रा सूरतगढ़ से शुरू हुई और दोनों जिलों का फेरा लगाकर पूरी हुई। जांगल जात्रा के नाम से निकली इस यात्रा का मकसद केवल स्थानीय धरोहरों को पहचान दिलाना भर नहीं है, बल्कि पूरे देश को यह प्रेरणा देना है कि हम सब अपने-अपने क्षेत्र की धरोहरों को मुख्यधारा के पर्यटन और विकास से जोड़ें।
पर्यटन के लिहाज से विकसित नहीं
जिन स्थानों को इस यात्रा से जोड़ा गया है, उनका ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक लिहाज से बहुत महत्व है, लेकिन पर्यटन के लिहाज से ये स्थान विकसित नहीं हैं। यात्रा का उद्देश्य जहां इन स्थानों को देश-विदेश में व्यापक पहचान दिलाना है, वहीं क्षेत्र में पर्यटन आधारित रोजगार के अवसर विकसित करना भी है। इन स्थलों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की मांग दशकों से उठ रही है, लेकिन सरकार के स्तर पर इस संबंध मेंं प्रयासों का अभाव ही रहा है।
शिक्षाविद् प्रवीण भाटिया की पहल
शिक्षाविद् प्रवीण भाटिया की पहल पर निकली यह यात्रा पांच से साढ़े छह हजार साल पुरानी कालीबंगा सभ्यता, दो हजार साल पुराने भटनेर दुर्ग, बरोड़ और रंगमहल जैसे पुरातात्विक स्थलों, उत्तरी भारत में श्रद्धा के प्रतीक गोगामेड़ी मंदिर और बूढ़ा जोहड़ गुरुद्वारे जैसे धार्मिक केंद्रों, बडोपल पक्षी विहार जैसी प्राकृतिक धरोहर और भारत-पाक सीमा पर स्थित नग्गी वॉर मेमोरियल जैसे वीरता के प्रतीकों तक पहुंची। इस यात्रा का यह स्वरूप दर्शाता है कि हर क्षेत्र में कितनी विविधता और समृद्धि छिपी हुई है, जिसे हम पर्यटन और संस्कृति की मुख्यधारा से जोड़कर नई पहचान दिला सकते हैं।
सौ साल पहले का इतिहास
जांगल जात्रा की यह पहल सौ साल पहले बीकानेर संभाग में काम करने वाले इटली के विद्वान डॉ. लुईजी पिऔ टैस्सीटोरी की याद दिलाती है। उन्होंने गांव-गांव की खाक छान कर दर्जनों ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थलों की खोज की थी। भाटिया ने उसी तर्ज पर गांव-गांव जाकर वहां धरोहरों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया है।
खास बात यह है कि यह यात्रा एक व्यक्ति विशेष की पहल जरूर है, लेकिन इसे उन हजारों लोगों का समर्थन हासिल है, जो क्षेत्र की धरोहरों को सहेजने और विकसित करने के पक्षधर हैं। इस यात्रा ने लोगों को अपनी विरासत पर गर्व करना सिखाया है और दूर-दराज गांवों के उपेक्षित पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के स्थानों को लोक विमर्श का केंद्र बना दिया है।
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बिसराए गए स्थलों की याद
यह केवल राजस्थान की बात नहीं है। देश के हर राज्य और हर जिले में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनका ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है, लेकिन वे बिसरा दिए गए हैं, उपेक्षित पड़े हैं। अगर स्थानीय लोग मिलकर उन्हें संरक्षित और विकसित करने का बीड़ा उठाएं तो न केवल वहां की सांस्कृतिक पहचान मजबूत होगी, बल्कि पर्यटन आधारित रोजगार और समग्र विकास के नए अवसर भी पैदा होंगे।
वर्तमान समय में केवल सरकार पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है। धरोहरों की रक्षा और उन्हें वैश्विक पहचान दिलाने की समाज की भी जिम्मेदारी है। जब स्थानीय लोग आगे आते हैं तो सरकार और नीति निर्माताओं को भी मजबूरन सक्रिय होना पड़ता है। यह बदलाव जांगल जात्रा जैसे प्रयासों से संभव होता है।
भविष्य की संभावनाओं का आधार
हमारे देश की धरोहरें केवल पत्थरों और स्मारकों की कहानियां नहीं हैं, बल्कि यह हमारी पहचान और भविष्य की संभावनाओं का आधार हैं। अगर आम लोग ठान लें तो उपेक्षित धरोहरें भी अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर जगह बना सकती हैं। यही सोच हर राज्य और जिले के लोगों को अपनानी होगी।
राजस्थान मेंं निकली जांगल जात्रा केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि एक संदेश है, जिसमें अपनी धरोहर के लिए काम करने की प्रेरणा निहित है। अपनी धरोहर को सहेजना और उसे भविष्य की ताकत बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है। अगर देश के कोने-कोने में ऐसे प्रयास शुरू हों तो हमारी सांस्कृतिक विरासत केवल किताबों और संग्रहालयों तक सीमित न रहकर जीवंत अनुभव का रूप लेगी। इसी से भारत सचमुच मेंं अद्भुत नजर आएगा।