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एक दिन लोग अंग्रेजी बोलने पर शर्म करेंगे हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह के इस बयान ने एक बार फिर भाषा के विवाद को जन्म दे दिया है। मेरी भाषा बनाम तेरी भाषा की बात फिर चर्चा में है। ऐसे में आज हम thesootr Prime में जानेंगे कि भारत में अंग्रेजी सीखने- बोलने को लेकर किस तरह का क्रेज है…
स्टालिन का भाषा पर दिया बयान याद कीजिए
कुछ दिन पहले तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच भाषा विवाद तेज हो गया है। इस मुद्दे की शुरुआत तब हुई जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने केंद्र सरकार की द्विभाषा नीति (Double Language Policy) पर सवाल उठाए और हिंदी थोपने के आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि तमिल एक प्राचीन भाषा है और इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।
हिंदी पट्टी नहीं सीखना चाहती नई भाषा
डेटा दर्शाता है कि गैर-हिंदी भाषी राज्यों (Non-Hindi States) के लोग नई भाषाएं सीखने और बोलने के लिए अधिक इच्छुक हैं, जबकि हिंदी पट्टी (Hindi Belt) में ऐसा रुझान कम देखने को मिलता है। इसके अलावा, दक्षिण भारतीय राज्यों (South India) में लोग अंग्रेजी (English) को द्वितीय भाषा (Second Language) के रूप में अधिक अपना रहे हैं, जबकि हिंदी बोलने वालों का औसत स्थिर बना हुआ है। यही कारण है कि तीन-भाषा नीति (Three-Language Formula) जैसी नीतियों का दक्षिण भारत में अधिक विरोध किया जाता है।
गैर हिंदीभाषी राज्यों में बहुभाषावाद
डेटा से पता चलता है कि हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी बोलने वाले अधिकतर लोग केवल एक ही भाषा जानते हैं, जबकि गैर-हिंदीभाषी राज्यों में लोग अधिक बहुभाषी यानी एक से ज्यादा भाषा बोलने वाले होते हैं। उदाहरण के लिए, 1991 में तमिलनाडु में 85.4% लोग केवल तमिल जानते थे, लेकिन 2011 में यह प्रतिशत घटकर 78% हो गया। इसी प्रकार, ओडिशा में भी मोनो-भाषी लोगों की संख्या में कमी देखी गई।
इसके विपरीत, महाराष्ट्र, पंजाब, गुजरात, आंध्र प्रदेश, और अन्य गैर-हिंदी राज्यों में अंग्रेजीबोलने वालों की संख्या बढ़ी है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी-भाषी राज्यों में मोनो-भाषियों की संख्या अधिक बनी हुई है।
अंग्रेज़ी को एक विकल्प के रूप में अपनाना
चार्ट दर्शाते हैं कि कुछ राज्यों में द्विभाषावाद और बहुभाषावाद यानी एक से ज्यादा भाषा सीखने का चलन बढ़ रहा है। तमिलनाडु में अंग्रेजीबोलने वालों का प्रतिशत 1991 में 13.5% था, जो 2011 में बढ़कर 20% हो गया। इसी प्रकार, कर्नाटक में भी कन्नड़ के अलावा अंग्रेजीबोलने वालों की संख्या बढ़ी है।
दूसरी ओर, हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजीबोलने वालों की संख्या में मामूली वृद्धि हुई है। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, और गुजरात में यह वृद्धि अधिक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
हिंदी बनाम अंग्रेजी की बहस
बहुभाषावाद से जुड़े बड़े प्रश्नों में से एक यह है कि क्या अंग्रेजीको अपनाने से हिंदी के महत्व में कमी आएगी। डेटा यह दर्शाता है कि हिंदीभाषी राज्यों में अंग्रेजीबोलने वालों की संख्या धीमी गति से बढ़ रही है, जबकि दक्षिण और पश्चिमी राज्यों में यह तेजी से बढ़ी है।
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क्या कहता है डेटा
the hindu की एक रिपोर्ट के अनुसार हिंदी की जगह अंग्रेजी पहली पसंद बनी हुई है। देश के विभिन्न राज्यों में अंग्रेजी को प्राथमिक भाषा के रूप में अपनाने का चलन बढ़ रहा है। खासकर दक्षिण और उत्तर-पूर्वी भारत (South & North-Eastern India) में ये ट्रेंड और तेजी से बढ़ रहा है।
आंकड़ों के मुताबिक, तमिलनाडु में 75% लोग अंग्रेजी बोलते हैं, जबकि 1991 में यह आंकड़ा 50% था। केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या बढ़ी है। गुजरात और महाराष्ट्र में अंग्रेजी बोलने वालों का अनुपात करीब 20% तक पहुंच गया है। इसके उलट, हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अपनाने की दर अपेक्षाकृत धीमी रही है।
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राज्यों में बहुभाषावाद (Multilingualism) का प्रभाव
दक्षिण भारत (South India)
तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में लोग अंग्रेजी और अपनी मातृभाषा बोलने को प्राथमिकता देते हैं।
तमिलनाडु में 1991 में मात्र 50% लोग अंग्रेजी बोलते थे, लेकिन अब यह 75% से अधिक हो गया है।
उत्तर भारत (North India)
हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी प्रमुख भाषा बनी हुई है, लेकिन अंग्रेजी का उपयोग सीमित है।
उदाहरण के लिए, बिहार में 92% लोग केवल हिंदी बोलते हैं।
पश्चिम और मध्य भारत (West & Central India)
गुजरात और महाराष्ट्र में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या 20% तक पहुंच गई है। इन राज्यों में हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग समान रूप से किया जा रहा है।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ये है हाल
मध्यप्रदेश
- 1991 में, मध्यप्रदेश में द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी बोलने वालों की संख्या 80% थी, जो 2011 में बढ़कर 90% हो गई।
- 1991 में, मध्यप्रदेश में द्वितीय भाषा के रूप में उर्दू बोलने वालों की संख्या 10% थी, जो 2011 में घटकर 5% हो गई।
- 1991 में, मध्यप्रदेश में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या 2% थी, जो 2011 में बढ़कर 4% हो गई।
- 2011 में मध्यप्रदेश में हिंदी बोलने वालों का HDI स्कोर 0.5 था।
छत्तीसगढ़
- 1991 में, छत्तीसगढ़ में द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी बोलने वालों की संख्या 70% थी, जो 2011 में बढ़कर 80% हो गई।
- 1991 में, छत्तीसगढ़ में द्वितीय भाषा के रूप में उर्दू बोलने वालों की संख्या 5% थी, जो 2011 में घटकर 2% हो गई।
- 1991 में, छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या 1% थी, जो 2011 में बढ़कर 2% हो गई।
- 2011 में छत्तीसगढ़ में हिंदी बोलने वालों का HDI स्कोर 0.4 था।
यह डेटा केवल उन लोगों पर आधारित है जिन्होंने अपनी मातृभाषा के अलावा किसी अन्य भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में पहचाना है।
क्या हिंदी का विरोध राजनीतिक मुद्दा है?
दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी को थोपने के खिलाफ नाराजगी लंबे समय से रही है। तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन (Anti-Hindi Movement) दशकों से सक्रिय रहा है। केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को सरकारी कामकाज में अधिक प्राथमिकता देने पर तमिलनाडु और अन्य राज्यों ने विरोध जताया।
कौन सी भाषा बनेगी संपर्क भाषा (Link Language)?
एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि भारत में संपर्क भाषा (Link Language) हिंदी होगी याअंग्रजी? दक्षिण और उत्तर-पूर्वी भारत में अंग्रेजी को अधिक पसंद किया जा रहा है। उत्तर और मध्य भारत में हिंदी अब भी प्रमुख भाषा बनी हुई है। शिक्षा, व्यवसाय और तकनीक में अंग्रेजी का उपयोग बढ़ने से अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ रहा है। एक से ज्यादा भाषाएं बोलने वालों के सामाजिक, राजनीति, बौद्धिक और आर्थिक स्थिति में क्या बदलाव आता है?
एक से ज्यादा भाषा जानने के ये फायदे
बहुभाषावाद (multilingualism) का व्यक्ति की सामाजिक, राजनीतिक, बौद्धिक और आर्थिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अनेक भाषाओं का ज्ञान और उपयोग न केवल व्यक्तिगत विकास में सहायक होता है, बल्कि यह समाज और राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सामाजिक प्रभाव: बहुभाषी व्यक्ति विभिन्न सांस्कृतिक समूहों के बीच सेतु का कार्य करते हैं, जिससे सामाजिक समरसता और समझ बढ़ती है। यह विविधता को स्वीकार करने और विभिन्न समुदायों के बीच संवाद स्थापित करने में मदद करता है।
राजनीतिक प्रभाव: बहुभाषावाद राजनीतिक संवाद और कूटनीति में सहायक होता है। यह राजनीतिक नेताओं और नागरिकों को विभिन्न भाषाई समूहों के साथ प्रभावी संवाद स्थापित करने में सक्षम बनाता है, जिससे समावेशी नीतियों का निर्माण संभव होता है।
बौद्धिक प्रभाव: अनेक भाषाओं का ज्ञान मस्तिष्क के विकास में सहायक होता है। यह संज्ञानात्मक कौशल, जैसे कि समस्या सुलझाने की क्षमता, एकाग्रता और याददाश्त में सुधार करता है। इसके अलावा, यह विभिन्न सांस्कृतिक दृष्टिकोणों को समझने में भी मदद करता है।
आर्थिक प्रभाव: बहुभाषी व्यक्ति वैश्विक बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धात्मक होते हैं। यह विभिन्न भाषाई क्षेत्रों में व्यापार और रोजगार के अवसरों को बढ़ाता है। विशेष रूप से, बहुभाषी कौशल वाले पेशेवरों की मांग अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में अधिक होती है।
एक शोध में पाया गया है कि जो लोग एक से ज्यादा भाषाएं जानते हैं, उनकी सोचने-समझने की क्षमता (Cognitive ability) ज़्यादा मजबूत होती है। इससे उम्र बढ़ने पर भी दिमाग तेज़ रहता है और जल्दी कमजोर नहीं होता। ऐसे लोग अलग-अलग संस्कृतियों को भी बेहतर समझते हैं, जिससे समाज में सहनशीलता और आपसी समझ बढ़ती है।
इस तरह, कई भाषाएं जानने के फायदे सिर्फ व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि पूरे समाज को भी फायदा होता है। यह सामाजिक मेलजोल, राजनीतिक बातचीत, दिमागी विकास और रोजगार के नए अवसरों को भी बढ़ावा देता है।
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