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Thesootr Prime:जरा सोचिए- चुनाव का मौसम है। आप वोट डालने के लिए उत्साहित हैं, लेकिन तभी पता चलता है कि आपका नाम वोटर लिस्ट से ही गायब है। या फिर आपसे ऐसे दस्तावेज मांगे जा रहे हैं जो आपके पास हैं ही नहीं। आप कतार में घंटे भर खड़े रहे, लेकिन अब अधिकारी कह रहे हैं - "माफ कीजिए, बिना दस्तावेज के आप मतदान नहीं कर सकते।"
यह कहानी केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि लाखों भारतीयों की हकीकत बन सकती है। हाल ही में किए गए लोकनीति-CSDS के अध्ययन में साफ दिखता है कि कैसे दस्तावेजों की अनिवार्यता, खासतौर पर Special Intensive Revision (SIR) प्रक्रिया में, समाज के वंचित वर्गों को लोकतंत्र से बाहर धकेल सकती है। thesootr Prime में आज इसी रिपोर्ट के बारे में विस्तार से समझेंगे…
दस्तावेज रखने वालों और न रखने वालों की दो दुनिया
यह (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) रिपोर्ट बताती है कि "आधार कार्ड" देश के अधिकतर नागरिकों के पास हैं, लेकिन अन्य दस्तावेजों की स्थिति में काफी भिन्नताएं हैं। उदाहरण के तौर पर, पैन कार्ड सामान्य वर्ग के लोगों में अधिक होते हैं, जबकि अनुसूचित जातियों (SC) में यह संख्या आधी से भी कम है।
पासपोर्ट, जो एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, अधिकांश सामाजिक समूहों के पास नहीं होते हैं। केवल सामान्य वर्ग के लोग ही इसका एक बड़ा हिस्सा रखते हैं।
अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेज जैसे कि जन्म प्रमाण पत्र, 10वीं कक्षा की प्रमाण पत्र और निवास प्रमाणपत्र, विभिन्न जातियों और वर्गों के बीच बहुत भिन्न होते हैं। जबकि सामान्य वर्ग के लोग इन दस्तावेजों के मालिक होते हैं, अनुसूचित जाति (SC) और आदिवासी (ST) समुदायों में इनकी कमी बहुत अधिक है।
ग्राफिक देखिए
अगर आप मिडिल क्लास या सम्पन्न परिवार से हैं, तो ये नियम आपको साधारण लग सकते हैं- "भला आधार कार्ड, पैन कार्ड या पासपोर्ट बनवाना क्या मुश्किल है?" लेकिन जब नजर सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से पर जाती है, तो तस्वीर बदल जाती है।
यह अध्ययन लोकनिति-सीएसडीएस द्वारा एनसीआर-दिल्ली और पांच राज्यों - असम, केरल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, और पश्चिम बंगाल में किया गया था। स्टडी के दौरान कुल 3,054 लोगों से उत्तर भरवाए गए।
हर राज्य में लगभग 500 साक्षात्कार किए गए। इस स्टडी में विभिन्न सामाजिक प्रोफाइल वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए 44% महिलाएं, 48% शहरी मतदाता, 18% दलित, 7% आदिवासी, 12% मुस्लिम और 5% ईसाइयों से बात की गई।
- 👉 आधार कार्ड लगभग सभी के पास है।
- 👉 लेकिन पैन कार्ड की बात करें तो सामान्य (General Category) के 90% लोगों के पास है, जबकि अनुसूचित जातियों (SC) में यह आंकड़ा आधा भी नहीं है।
- 👉 पासपोर्ट की स्थिति तो और भी दयनीय है - हर पांच में से केवल एक सामान्य वर्ग व्यक्ति के पास है, यानी करीब 20% लेकिन SC/ST में 5% के आसपास।
- 👉 इसके उलट, जाति प्रमाण पत्र (Caste Certificate) सबसे ज्यादा ST समुदाय में पाए जाते हैं- लगभग 80%।
अब जरा जन्म प्रमाण पत्र (Birth Certificate) की तरफ आइए।
पूरे देश में किसी भी जाति में 50% से कम लोगों के पास ही जन्म प्रमाण पत्र है। SC में तो यह केवल हर चार में से एक के पास है। घर-परिवार स्तर पर देखें तो और भी बुरी स्थिति दिखती है- SC परिवारों में मुश्किल से 10% घरों के हर वयस्क सदस्य के पास जन्म प्रमाण पत्र होता है।
- 👉 आर्थिक स्थिति: दस्तावेज का असली पासवर्ड
- 👉 अध्ययन यह भी दिखाता है कि जितना सम्पन्न परिवार होगा, उतने ज्यादा दस्तावेज उनके पास होंगे।
- 👉 अमीर परिवारों में आधे से ज्यादा के पास पासपोर्ट हैं।
- 👉 जबकि गरीब परिवारों में केवल 5% के पास ही हैं।
- 👉 जन्म प्रमाण पत्र भी संपन्न लोगों के बीच दोगुने से ज्यादा पाए जाते हैं।
- 👉 गरीब परिवारों की बुजुर्ग माताओं के पास तो आठ में से दस मामलों में कोई शैक्षिक प्रमाण पत्र ही नहीं है।
प्रदेशों में दस्तावेज संकट
- सबसे चौंकाने वाले परिणाम उत्तर प्रदेश और दिल्ली से सामने आए।
- यूपी में तीन में से दो लोग जरूरी दस्तावेज नहीं रखते।
- दिल्ली जैसे शहरी राज्य में भी हर चौथे व्यक्ति के पास वे दस्तावेज नहीं हैं, जिनकी चुनाव आयोग (ECI) मांग करता है।
जनता की धारणा: किसे सबसे ज्यादा खतरा?
जब लोगों से पूछा गया कि अगर अब जन्म प्रमाण पत्र अनिवार्य कर दिया गया तो सबसे ज्यादा नुकसान किसे होगा?
- करीब आधे लोगों ने कहा- अनपढ़ और बुजुर्ग।
- इसके बाद नाम आते हैं- गरीब, प्रवासी (Migrants), ग्रामीण
- कुछ समूहों में यह मान्यता भी मजबूत है कि मुस्लिम, अनुसूचित जाति और जनजातियां सबसे ज्यादा प्रभावित होंगी।
- यानी दस्तावेजीकरण की यह बाध्यता सीधे-सीधे समाज के कमजोर हिस्सों को और भी हाशिए पर धकेल रही है।
भरोसे पर असर: चुनाव आयोग पर घटता विश्वास
लोकनीति के सर्वे से सामने आया कि जनता का भरोसा चुनाव आयोग पर लगातार घट रहा है।
2019 में जहां यूपी के 56% लोग चुनाव आयोग पर “उच्च विश्वास” जताते थे, 2025 तक यह घटकर 21% रह गया।
मध्यप्रदेश के लोग भी….
केरल में भी यही गिरावट दिखी - 57% से घटकर 35%।
कोई भरोसा नहीं कहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती गई।
सामाजिक स्तर पर Doubtful Citizen का लेवल
सबसे गहरी चिंता यह है कि दस्तावेज न रखने वालों को अब केवल वोटर लिस्ट से बाहर ही नहीं किया जाएगा, बल्कि उन्हें समाज में Doubtful Citizen यानी संदेहास्पद नागरिक के रूप में भी देखा जा सकता है।
गरीब और पिछड़े समुदाय चिंतित हैं, क्योंकि…
- सरकार की ज़्यादातर योजनाएं और सब्सिडी अब दस्तावेज आधारित हैं।
- अगर गरीब या पिछड़े समाज के पास ये कागज ही नहीं, तो वह शिक्षा, रोजगार और सरकारी लाभ से बाहर हो जाएगा।
- और सबसे बड़ा नुकसान यह कि - उसका लोकतांत्रिक अधिकार वोट डालने का अधिकार भी छिन जाएगा।
आगे का रास्ता: समाधान क्या है?
अगर हम चाहते हैं कि लोकतंत्र समावेशी बने और हर नागरिक की आवाज सुनी जाए, तो जरूरी है कि:
- दस्तावेज अनिवार्यता में लचीलापन हो – हर जगह जन्म प्रमाण पत्र या पासपोर्ट की शर्त न हो।
- सरकार सक्रियता दिखाए – हर ग्राम पंचायत स्तर पर नागरिकों को अपने दस्तावेज आसानी से बनवाने की सुविधा दी जाए।
- स्थानीय प्रमाणन (Local Verification) की व्यवस्था हो - जहां पंचायत या नगर परिषद दस्तावेज के अभाव में स्थानीय पहचान पर प्रमाण दे सके।
- पारदर्शिता और संवाद – चुनाव आयोग को यह स्पष्ट करना चाहिए कि नियमों का मकसद हटाना नहीं बल्कि जोड़ना है।
- डिजिटल दस्तावेज पहुंच – हर नागरिक को मुफ्त डिजिटल लॉकर सुविधा दी जाए, जिसमें उसका आधार, जन्म प्रमाण पत्र और पहचान पत्र एक जगह सुरक्षित हों।
लोकतंत्र का असली टेस्ट
भारत की ताकत इसकी जनसंख्या की विविधता और लोकतांत्रिक भागीदारी है। लेकिन दस्तावेज़ों के नाम पर लाखों लोग वोटिंग से बाहर हो गए, तो यह केवल प्रशासनिक गलती नहीं, बल्कि लोकतंत्र पर भी चोट होगी।
चुनाव आयोग (Election Commission) पर भरोसा तभी कायम रहेगा जब वह सभी वर्गों को न्यायपूर्ण तरीके से शामिल कर पाएगा। अगर गरीब, प्रवासी या पिछड़े वर्ग के लोग यह महसूस करने लगें कि वे सिस्टम से बाहर हैं, तो लोकतंत्र का आधार ही हिल सकता है।
इसलिए जरूरी है- चुनाव आयोग और सरकार, दोनों मिलकर यह सुनिश्चित करें कि कोई भी नागरिक केवल दस्तावेज़ की कमी के कारण अपनी पहचान और अधिकार से वंचित न हो।
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