भ्रष्टाचार के लिए सरकारी दीमक कितने जिम्मेदार?

author-image
एडिट
New Update
भ्रष्टाचार के लिए सरकारी दीमक कितने जिम्मेदार?

सरयूसुत मिश्र। देश में भ्रष्टाचार पर हमेशा बात होती रहती है। इस बार “मन की बात” कार्यक्रम में प्रधानमंत्री को एक बच्ची द्वारा लिखे पत्र के कारण भ्रष्टाचार पर देशव्यापी चर्चा हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार मिटाने की छोटी बच्ची की आवाज को राष्ट्रीय आवाज बना दिया है। 





सरकारी तंत्र से शुरू होता है भ्रष्टाचार





भ्रष्टाचार जनता कैसे करेगी? उसके पास तो कोई ऑप्शन ही नहीं है। भ्रष्टाचार शुरू होता है सरकारी व्यवस्था और तंत्र से, जनता अपना काम कराने के लिए कमीशन और रिश्वत देने के लिए मजबूर होती है। टेंडर, ठेका, सप्लाई में भ्रष्टाचार, सरकारी पैसे से शुरू होता है। कोई भी कितना बड़ा उद्योगपति ठेकेदार या सप्लायर हो वह अपने घर से एक भी पैसा किसी को नहीं देता। वह तो कमाने के लिए धंधा कर रहा है। कमीशनखोरी और रिश्वत की बंदरबांट, जनता के सरकारी पैसे में ही होती है। इसका मतलब भ्रष्टाचार पूरी तरह सरकारी दीमक है।







राजनैतिक दल भी जिम्मेदार 





सरकारी तंत्र राजनीतिक संरक्षण के बिना अपना करप्शन कर पाए ऐसा संभव नहीं है। चुनावी राजनीति के जरिए चंदाधारी दीमक, सरकारी चारदीवारी में घुस कर, अपना सुरक्षित स्थान बना लेती है। एक बार किसी नेता या दल के सहारे भ्रष्टाचारी दीमक, सिस्टम में घुसती है तो सिस्टम को खोखला करने तक चैन से नहीं बैठती। भले ही उस दल की सरकार चली जाए, लेकिन दीमक नहीं जाती । चंदाधारी दीमक एक बार घुस गई तो सरकार बदलने पर वह अपना वेरिएंट बदल लेती है। ये  वेरिएंट इतनी तेजी से बदलते हैं कि उन पर कोई एंटी करप्शन टीका  काम नहीं करता। कई बार तो भ्रष्टाचारी दीमक एक दो नहीं तीन चार स्थानों पर अपने अलग-अलग वेरिएंट के रूप में घुसे होते हैं।





चुनाव में होने वाले खर्च से भ्रष्टाचार की शुरूआत 





भ्रष्टाचार को मिटाने का विषय बहुत गंभीर है। यह बयानों और हल्के-फुल्के प्रयासों से खत्म नहीं होगा। एक भ्रष्टाचारी दीमक पकड़ा जाता है तो रास्ते का पता दूसरे को लग जाता है। नया भ्रष्टाचारी दीमक इस रास्ते से अपना घर बना लेते हैं। एंटी करप्शन अभियान की शुरूआत राजनीतिक और चुनावी सुधार से संभव हो सकती है। अभी पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। विधानसभा में चुनाव खर्च की सीमा 40 लाख निर्धारित है। इतनी राशि में एक माह का चुनावी प्रचार अभियान क्या संभव है? इस राशि से छोटे-मोटे शादी समारोह भी नहीं हो पाते। तंत्र, व्यवस्था, यहां तक की जनता और चुनाव आयोग को भी पता है चुनाव में सीमा से अधिक खर्च हो रहा है। एक वर्तमान विधायक ने निजी चर्चा में बताया कि अब तो विधानसभा चुनाव लड़ना बहुत ही कठिन हो गया है। एक सीट पर चुनाव में ₹10 से ₹20 करोड़ तक खर्च होते हैं।राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में भी हमेशा विवाद होते रहते हैं। किसने चंदा दिया? कितना चंदा दिया? इसकी पारदर्शिता हमेशा सवालों के घेरे में रहती है।







भ्रष्टाचार को खत्म करने इन बदलावों की जरूरत





भ्रष्टाचार पर ईमानदारी से चोट के लिए चुनाव सुधार सबसे अधिक जरूरी है। चुनाव में पैसे की जरूरत नहीं होगी, तो चंदाधारी दीमक सरकार में नहीं घुस सकेंगे। चुनाव सुधारों में सबसे पहले सभी तरह के चुनाव, एक साथ कराने पर विचार किया जाना चाहिए। एक साथ चुनाव, देश के साथ समाज के लिए भी बेहद जरूरी है। हर चुनाव जाति धर्म की कटुता बढ़ाने का ही काम करता है। लोकतंत्र के संवैधानिक ढांचे में कसकर, राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली, खर्च, प्रत्याशियों के चयन की व्यवस्था को, वैज्ञानिक स्वरूप दिया जाना चाहिए। चुनाव का खर्च सरकार की ओर से वहन करने पर भी चुनाव सुधार में विचार होना चाहिए। जब चुनाव में प्रत्याशियों को पैसा, सरकार की ओर से दिया जाएगा, तो फिर चंदाधारियों की दुकानें बंद हो जाएंगी। जहां तक सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार का सवाल है, उस पर आईटी सलूशन मोड से नियंत्रण पाया जा सकता है। कोई भी निर्णय फुलप्रूफ तकनीकी आधार पर लिया जा सकता है। यद्यपि अब ई - घोटाले और साइबर अपराध जैसे मामले सामने आ रहे हैं।  लेकिन ऐसी उम्मीद की जा सकती है, कि भविष्य में तकनीकी विकास से, ऐसी संभावनाएं न्यूनतम हो सकती हैं।







आम आदमी पर भ्रष्टाचार की मार 





भारत भ्रष्टाचार से योजनाबद्ध लड़ाई शुरू कर चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नोटबंदी, जीएसटी और सीधे खातों में भुगतान जैसे कदम भ्रष्टाचार के लिए टाइम बम जैसे हैं। भ्रष्टाचार की संभावनाओं को खत्म करना ही एक रास्ता है। अगर अवसर मिलेगा तो कोई भी लाभ उठाने से शायद नहीं चूकेगा। नरेंद्र मोदी के आने के बाद भारतीय राजनीति की धारा बदली है। राजनीति में नैतिकता और शुचिता की बात सुनाई पड़ना शुरू हुई है। भ्रष्टाचार का विरोध तो सब करते हैं। लेकिन उसका लाभ उठाने से भी नहीं चूकते। यह शायद भ्रष्टाचार का ही जादू है, इसकी शिकायत सभी को है और इससे मोहब्बत भी सभी को है। समय-समय पर विशेषकर चुनाव के दौरान, आयकर और ईडी के छापों में अकूत काले धन का भंडार उजागर होता है। आम आदमी के सपनों को भ्रष्टाचार निगले जा रहा है। आम आदमी की जिंदगी की इमारत, धराशाई होती जा रही है।







व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता 





भ्रष्टाचार के “दिमागी बम” को, समय सीमा में उड़ाना जरूरी है। भ्रष्टाचार से लड़ाई आसान नहीं है। जो भी नेता या व्यवस्था ईमानदारी से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ेगा, उसके साथ इतने छल और षड्यंत्र होंगे कि उसका जीना मुहाल हो जाएगा। यह लड़ाई तो जुनूनी और देशभक्त ही लड़ सकता है। “ना खाऊंगा ना खाने दूंगा” की भावना को जमीन पर उतारना हिमालयीन काम है। कोई भी व्यक्ति “ना खाऊंगा” की प्रतिबद्धता तो निभा सकता है, क्योंकि उसे स्वयं करना है, लेकिन “खाने नहीं दूंगा”? इसके लिए सारी व्यवस्था को नए सिरे से जमाना होगा। इसके लिए जब भी कोई प्रयास होगा तो वह लोग जो भ्रष्टाचार की व्यवस्था पर ही निर्भर हैं उनकी प्रतिक्रिया कल्पना ही की जा सकती है। सोचिए कि जिस सिस्टम से करोड़ों कमाए जाते हैं, वह सिस्टम ही बदल जाएगा तो ऐसे सिस्टमजीवी भ्रष्टाचारियों का क्या होगा ?अगर भ्रष्टाचार से एकत्रित काले धन को जब्त कर लिया जाएगा, तो ऐसे भुक्तभोगी की मानसिक स्थिति की कल्पना ही की जा सकती है। आज देश में ऐसा ही माहौल दिख रहा है। भारतीय राजनीति और भ्रष्टाचार को लेकर समाज का परसेप्शन अच्छा नहीं है। पब्लिक मानती है कि मंत्री, मुख्यमंत्री और राजनीतिक क्षेत्र के लोग सबसे रिचेस्ट पर्सन हैं। अपवाद स्वरूप कई पॉलिटिकल व्यक्ति इस धारणा को तोड़ते हैं। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, चुनाव में जाति,धर्म, ठाकुरवाद के आरोप तो बड़ी ताकत से लग रहे हैं, लेकिन ये बात सुकून भरी है, कि यूपी के मुख्यमंत्री के खिलाफ, भ्रष्टाचार का कोई आरोप विपक्ष भी नहीं लगा पाया है।



“गाली है करप्शन इसे आशीर्वाद ना बनाइए”



खुद भी बचिए और देश को भी बचाइए।



narendra modi MANN KI BAAT corruption government politics Common Man Saryusut Mishra Prime Minister Economy nation Indian voice of the little girl