सुनो भई साधो... सरकारी नौकरी लगने के बाद काम भी किया जाता है?

व्यंग्यकार सुधीर नायक ने सरकारी नौकरी की वास्तविकता और शादी से जुड़ी एक सांस्कृतिक धारणा पर चर्चा की है। इसमें बताया गया है कि कैसे सरकारी नौकरी को अब भी एक सहज और आरामदायक जीवन का हिस्सा माना जाता है, जबकि काम करने का दबाव बढ़ गया है।

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The Sootr
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सुधीर नायक

लोगों को यह समझने में दिक्कत आ रही है कि सरकारी नौकरी लगने के बाद काम भी किया जाता है। वे अभी तक यही समझते आये थे कि सरकारी नौकरी के बाद सिर्फ शादी की जाती है। ऐतिहासिक रूप से नौकरी और शादी में इतना गहरा संबंध रहा है कि लोग दोनों को एक ही समझते हैं।

नौकरी को शादी में ही शामिल माना जाता है। नौकरी लगने को शादी की एक पूर्व रस्म के रूप में लिया जाता रहा है। इसीलिए ससुराल और सरकार में भी हमने फर्क नहीं माना। साहब को ससुर की तरह मान दिया। नौकरी लगने और शादी होने का किस्सा हमेशा एक साथ ही सुनाया जाता है।

बेइज्जती क्यों नहीं आती नजर?

उस दिन की ही बात है,सब मुझे घेरकर खड़े थे। उनका कहना था कि मैं तुरंत उठूं और उनकी बेइज्जती का बदला लूं। मैं उन्हें समझाने का असफल प्रयास कर रहा था कि इसमें बेइज्जती जैसी कोई बात नहीं है। वे चकित थे कि मुझे कोई बेइज्जती क्यों नजर नहीं आ रही है?

बात आरती मैडम से शुरू हुई थी। आरती मैडम शांत स्वभाव की हैं। उन्हें गुस्सा नहीं आता। यदि कभी कभार गुस्सा आता भी है तो केवल तब जब कोई काम के लिए बोलता है। उनका कहना है कि घर में भी काम करूं और ऑफिस आकर भी काम करूं यह कहां का न्याय है?

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काम का हिसाब कोई मांगता है भला?

बात कायदे की है इसलिए उनसे काम के लिए कोई नहीं बोलता। अभी कोई नया साहब आया है। वह मैडम से काम के लिए बोलता है। नया लड़का है। यहां आने के पहले किसी प्रायवेट कंपनी में रहा है। मैडम लड़कपन समझकर टालतीं रहीं लेकिन उस दिन हद हो गयी वह हफ्ते भर के काम का हिसाब मांगने लगा।

मैडम आगबबूला हो गयी। वैसे खराब सभी को लगा। ये तो सरासर बेइज्जती है। ये सरकारी दफ्तर है कि बनिया की दुकान? ऐसे दिन आ गये कि सरकारी आदमी काम का हिसाब देगा? मैं उनकी बात समझ रहा था। गलती उनकी नहीं है। कुछ समय पहले तक नौकरी सरकारी ही होती थी।

इसलिए कहलाते थे नौकरशाह

आजादी की लड़ाई में नौकरी की नोंक घिस गयी। केवल नाकरी बची। लोगों ने नौकरी को नाकरी की तरह ही किया। जितने भी नौकर थे सब शाह थे। नौकरशाह यूं ही नहीं कहलाते थे। वे वाकई शाह ही थे। कबाड़ा तबसे शुरू हुआ जब से ये प्रायवेट वाले आये।

जब से प्रायवेट वाले आये हैं तब से सरकारी नौकरी भी सच्ची की नौकरी होती जा रही है। मैंने उन अधिकारी को यही समझाया। यह संक्रमण काल है। नाकरी को नौकरी होने में टाइम लगेगा। नयी नोंक लगवाना पड़ेगी। अभी पचा नहीं पा रहे हैं लोग।

सुनो भाई साधो... इस व्यंग्य के लेखक मध्यप्रदेश के कर्मचारी नेता सुधीर नायक हैं

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