बीता वक्त दोबारा लौटकर तो नहीं आता, लेकिन बीते वक्त की जुगाली करने से हमें कौन रोक सकता है? बचपन में दिवाली से एक महीने पहले ही गांव में हलचल मच जाती। मिट्टी के घरों की छबाई, लिपाई, पुताई मुख्यतौर पर महिलाओं की ही जिम्मेदारी रहती, इन्हीं दिनों खेती का भी काम रहता और मलेरिया का प्रकोप भी...इसलिए मजदूरों की कमी भी बनी रहती। घर की महिलाएं ही मोर्चा संभालतीं। मिट्टी से मिट्टी के घरों को दुरुस्त करना, गोबर से लिपाई और छुई से पुताई। खपरों के किरकौआं से मजोठे को पक्का करना, चौका, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी की गुरसी(गोरसी), मिट्टी की चखिया बनाना, उन्हें दुरुस्त करना, गेरू से रंगाई सबकुछ हाथ की मेहनत और मन की लगन से सम्पन्न किया जाता था, तब बाजार हम पर निर्भर था, हम बाजार पर निर्भर नहीं हुए थे।
लक्ष्मी पूजन के साथ ही गौमाता की पूजा, गाय, बैल, भैंस, बछड़ों को रंगना, सुबह पूरे मोहल्ले का एक जगह इकट्ठा होकर पटाखों से जानवरों को बिचकाना, पूरे घर के गोबर को एकत्र करके विशाल गोवर्धन (गोधन बब्बा) को बनाना और फिर इन्हीं गोधन बब्बा की पूजा करने के बाद उनके कान खोलने के लिए उनके बड़े पेट में सुतलीबम रखकर चलाना और गोबर का पूरे घर-आंगन में छितरा जाना। मां का गुस्सा होना ही, हमारी बाल लीलाएं थीं, जो आज बहुत-बहुत याद आती हैं।
उन्हीं सुनहरे दिनों का यह किस्सा है...
उन दिनों तीन तरह के पटाखे आते थे, जिनका नामकरण हमने छोटे, मंझले और बड़े पटाखे के तौर पर कर रखा था। हाथ से पत्थर पर मारकर फोड़े जाने वाला पत्थर फोड़ा, गंगा-जमुना बम पटाखा, बारूद भरकर चलाई जाने वाली गज-कुंडी... बाद में आया सुतलीबम। ये सब दिन में चलाए जाने वाले पटाखे हुआ करते थे। रात में रॉकेट, चील गाड़ी, चखरी, अनार, सांप की गोली आदि बेआवाज पटाखे चलाए जाते थे। बच्चों के लिए लाल बिंदी जैसी चिटपिटी (टिकली) आती थीं, जिसे पत्थर से दौंच कर चलाते थे। कुछ बच्चों के लिए इसे चलाने के लिए तमंचा भी मिल जाता था।
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बाद में इस चिटपिटी में भी सुधार हुआ और यह एक रील में बदल गई। इसे चलाने के लिए तमंचे की जगह बंदूक आ गई, जिसमें यह रील भरकर चलाई जाती थी, लेकिन यह सभी बच्चों को उपलब्ध नहीं हो पाती थी। वे घोर गरीबी और अभावों के दिन थे। सामान्य परिवारों के बच्चे तो टिकली को पत्थर पर रखकर पत्थर से दौंचने का ही आनन्द लेते थे।
जब हाथ में ही चल गया सुतली बम?
छोटे पटाखे को एक हाथ में सुलगती कंडी (कंडे का टुकड़ा) से पटाखे की बत्ती छुआकर दूर फेंक दिया जाता था। कुछ दुःसाहसी मंझले और बड़े पटाखे भी इसी विधि से चला देते थे। गांव की मंडली में इन दुःसाहसियों को सम्मान की नजर से देखा जाता था। सबसे ज्यादा आनंद तो वे लोग लेते थे, जो सिर्फ पटाखे चलाने वालों पर चिल्लाते थे। जल्दी छोड़ो... हाथ में चल जाएगा...अरे! मरोगे का...काय भैया, जभई समझ में आहे जब भुजं जै हो... अरे...चिक गए रे...पर गई साता! अपने दोनों कानों पर हाथ रखकर चिल्लाने वालों की यह भीड़ पटाखा-वीरों का ध्यान भंग करती थी।
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हमारे मोहल्ले में एक दादा (बड़े भाई को यह संबोधन दिया जाता है) थे। उनके एक हाथ में सुलगती हुई कंडी थी और वे हाथ से ही पटाखे चला रहे थे। पहले उन्होंने छोटे, मंझले, बड़े पटाखों पर अपनी कला का प्रदर्शन किया। फिर उन्होंने घोषणा की कि आज वे सुतलीबम भी हाथ से चलाएंगे। यह बम बड़ा खतरनाक होता है और बहुत तेज आवाज के साथ फटता है। इसे हाथ से चलाना खतरे से खाली नहीं। भीड़ में सभी ने मना किया, लेकिन जितना मना किया जाता, दादा की जिद उतनी ही बढ़ती जाती। एक हाथ में सुलगती धुआं छोड़ती कंडी और एक हाथ में सुतलीबम लिए दादा साक्षात "पाकिस्तान" हुए जा रहे थे। ऊपर से तो सूरमा बन रहे थे, लेकिन अंदर धुकधुकी बढ़ी हुई थी। जैसे ही दादा ने सुतली बम की बत्ती को कंडी से छुआया भीड़ समवेत स्वर में जोर से चिल्लाई- छोड़ दो...। दादा ने बिना सुलगा सुतली बम फेंक दिया। लोग हंसने लगे, दादा फिर उसे उठा कर लाए, कंडी में फूंक मारकर आग को चैतन्य किया और सुतली बम की बत्ती को आग से छुआया ही था कि सभी लोग कान पर हाथ रख कर जोर से चिल्लाए- छोड़ दो... छोड़ दो... दादा का ध्यानभंग हो गया। घबराहट में सुतली बम तो हाथ में ही रह गया और जलती कंडी फेंक दी। सुतलीबम हाथ में फट गया, हाथ के चिथड़े उड़ गए, महीनों इलाज चला।
(संस्मरण: सुरेंद्र सिंह दांगी, अध्यक्ष, पंचतत्व संरक्षण समिति, गंज बासौदा)