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Photograph: (THESOOTR)
भारत में संविधान की मूल भावना को बनाए रखते हुए, राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए किसी विधेयक पर निर्णय लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा समयसीमा तय करने पर विवाद खड़ा हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 22 जुलाई 2025 को इस मामले में केंद्र सरकार से जवाब मांगा था, जिसे अब केंद्र ने प्रस्तुत किया है।
केंद्र सरकार का कहना है कि संविधान के तहत, राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए निर्णय लेने के समय को निर्धारित करना संभव नहीं है, क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी अंग ‘सुप्रीम’ नहीं हो सकता।
केंद्र सरकार का जवाब
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत अपने जवाब में स्पष्ट किया कि संविधान में हर अंग के लिए शक्तियों का बंटवारा किया गया है और यह सुनिश्चित किया गया है कि कोई भी अंग अपने आप में ‘सुप्रीम’ नहीं हो।
सरकार ने यह भी उल्लेख किया कि संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की थी, ताकि यह प्रक्रिया लचीली और संवैधानिक जरूरतों के अनुसार हो सके।
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शक्तियों का बंटवारा और चेक एंड बैलेंस
सरकार के मुताबिक, संविधान में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत हर अंग को अपनी शक्तियां दी गई हैं, और इसमें चेक एंड बैलेंस का ख्याल रखा गया है।
यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि कोई भी एक अंग, दूसरे अंग के अधिकारों का अतिक्रमण न करे। इसलिए, कोर्ट द्वारा किसी एक अंग के लिए समयसीमा तय करना संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ होगा।
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राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार
केंद्र सरकार ने आगे यह भी कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को संविधान के तहत जो अधिकार दिए गए हैं, वे कार्यपालिका (executive) की वर्किंग के दायरे में आते हैं और न्यायपालिका इसमें कोई दखल नहीं दे सकती। इसके साथ ही, सरकार ने आर्टिकल 200 के तहत राज्यपाल को दिए गए अधिकार की न्यायिक समीक्षा की भी बात की।
जब राज्यपाल को कोई बिल भेजा जाता है, तो उसके पास चार विकल्प होते हैं: वह बिल को मंजूरी दे सकते हैं, उसे अस्वीकार कर सकते हैं, राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज सकते हैं, या बिल को वापस लौटा सकते हैं।
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संविधान में समयसीमा का अभाव
केंद्र ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर राज्यपाल के लिए इन शक्तियों को इस्तेमाल करने के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की थी। यह इसलिए था ताकि राजनीति और संविधानिक जरूरतों के आधार पर प्रक्रिया लचीली रह सके। कोर्ट द्वारा किसी समयसीमा या तरीका तय करने का प्रयास संविधान निर्माताओं की भावना के खिलाफ होगा और यह संवैधानिक असंतुलन पैदा कर सकता है।
संविधान और आर्टिकल 142
केंद्र सरकार ने आर्टिकल 142 का हवाला देते हुए कहा कि यह किसी भी न्यायिक शक्तियों के लिए नहीं है, जो संविधान के प्रावधानों को दरकिनार कर सके। इसके दायरे में बिलों को कोर्ट द्वारा मंजूरी देना शामिल नहीं है। कोर्ट ने किसी भी अंग के अधिकारों में हस्तक्षेप न करने की बात की है, क्योंकि इससे संवैधानिक संतुलन में गड़बड़ी हो सकती है।
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सुप्रीम कोर्ट का मामला
सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए समयसीमा तय करने का मामला तब सामने आया जब राज्यपाल ने कुछ विधेयकों पर लंबे समय तक निर्णय नहीं लिया था। विशेष रूप से तमिलनाडु सरकार ने यह याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल ने 2020 से 2023 के बीच 12 विधेयकों पर निर्णय लंबित रखा।
इस याचिका पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन महीने की समयसीमा तय करने का आदेश दिया था। इसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस मामले पर राय लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट से संदर्भ भेजा था, और अब इस पर कोर्ट में सुनवाई होनी है।
न्यायपालिका का हस्तक्षेप
केंद्र सरकार का कहना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के किसी भी अंग की विफलता या निष्क्रियता, दूसरे अंगों को संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य शक्तियां देने का कारण नहीं बन सकती।
यह व्यवस्था संविधान में निर्धारित संतुलन को बनाए रखने के लिए जरूरी है। अगर एक अंग को दूसरे अंग की शक्तियां दी जाती हैं, तो यह संवैधानिक अव्यवस्था का कारण बनेगा, जिसे संविधान निर्माताओं ने कभी नहीं चाहा।
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