उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए उस आदेश पर आपत्ति जताई है, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की गई थी। उनका कहना था कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं, क्योंकि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। उन्होंने विशेष रूप से अनुच्छेद 142 का जिक्र किया, जो अदालतों को कुछ विशेष अधिकार प्रदान करता है। धनखड़ ने इसे लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ एक "न्यूक्लियर मिसाइल" करार दिया, जो 24x7 उपलब्ध है और जजों को ‘सुपर संसद’ की तरह काम करने की शक्ति देता है।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु राज्य सरकार और राज्यपाल के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अदालत ने कहा कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है और सरकार द्वारा भेजे गए बिलों को बिना किसी कारण के रोकने का अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की ओर से 10 बिलों को रोके जाने को अवैध बताते हुए उन पर निर्णय लेने का आदेश दिया था।
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अनुच्छेद 142 और राष्ट्रपति के अधिकार पर सवाल
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 कोर्ट को विशिष्ट अधिकार देता है, लेकिन इसे इस तरह से उपयोग नहीं किया जा सकता कि यह लोकतांत्रिक संरचना को चुनौती दे। उनका मानना है कि न्यायपालिका का काम विधायिका और कार्यपालिका के निर्णयों को नहीं पलटना होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायाधीशों की कोई जवाबदेही नहीं होती, क्योंकि उन पर देश का कानून लागू नहीं होता, जो लोकतंत्र में ठीक नहीं है।
क्या है आर्टिकल 142
आर्टिकल 142 भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) को विशेष शक्तियाँ प्रदान करता है। यह आर्टिकल अदालत को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी मामले में अपने आदेशों और फैसलों को पूरी तरह से लागू करने के लिए किसी भी आवश्यक कदम उठा सकती है, चाहे वह संविधान के किसी अन्य प्रावधान से अलग हो। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि न्याय का पालन बिना किसी रुकावट के हो सके।
आर्टिकल 142 का उपयोग अदालतों द्वारा अक्सर तब किया जाता है जब संविधान में दी गई सामान्य प्रक्रियाओं से बाहर जाकर कोई न्यायिक कदम उठाने की आवश्यकता होती है, ताकि न्याय का वास्तविक रूप से पालन हो सके।
राष्ट्रपति को निर्णय लेने की समय सीमा
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति को एक महीने के भीतर राज्यपाल द्वारा भेजे गए बिलों पर निर्णय लेने का आदेश दिया। इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि राष्ट्रपति निर्णय में देरी करते हैं, तो इसके कारण बताए जाने चाहिए। अगर बिल विधानसभा से पुनः पारित होता है, तो राष्ट्रपति को अंतिम निर्णय लेना होगा और बिल को वापस नहीं भेजना होगा।
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राष्ट्रपति के निर्णय को दे सकती है चुनौती
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति के निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। इसका मतलब है कि अगर राष्ट्रपति का निर्णय संविधान के खिलाफ या मनमानी तरीके से लिया जाता है, तो उसे कोर्ट द्वारा चुनौती दी जा सकती है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास किसी बिल को रोकने या बदलने का अधिकार नहीं है।
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कपिल सिब्बल ने क्या कहा
पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सराहना की। उन्होंने कहा कि अब केंद्र सरकार जानबूझकर राज्यों के बिलों पर फैसले को टाल नहीं सकेगी। उनका कहना था कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है, क्योंकि इससे राज्यों के अधिकारों का सम्मान होगा और केंद्र सरकार को अपने निर्णयों में अधिक पारदर्शिता बरतनी होगी।
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न्यायपालिका का दखल चिंता का विषय
धनखड़ ने राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि देश में न्यायपालिका का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, और जज अब सिर्फ न्यायिक कार्य नहीं, बल्कि विधायिका और कार्यपालिका के कामों में भी हस्तक्षेप करने लगे हैं। उनका यह भी कहना था कि न्यायपालिका का यह दखल संविधान से ऊपर नहीं हो सकता और सभी संस्थाओं को अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए।
यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक
धनखड़ ने इस बात पर जोर दिया कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार का महत्व सबसे ज्यादा होता है और न्यायपालिका को इस संतुलन को बनाए रखते हुए काम करना चाहिए। उनका मानना था कि अगर न्यायपालिका अपनी सीमा पार करती है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है।
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