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बद्रीनाथ धाम, उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित एक प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थल है, जिसे चतुर्थ धाम के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान भगवान विष्णु के नर और नारायण अवतार का स्थल है।
यहां की एक प्रसिद्ध मान्यता है, "जो जाए बद्री, वो न आए ओदरी", जिसका अर्थ है कि जो व्यक्ति एक बार बद्रीनाथ धाम के दर्शन कर लेता है, उसे फिर से जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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4 मई को खुले बद्रीनाथ धाम
आपके बता दें कि, 4 मई 2025 को श्री बद्रीनाथ धाम के पवित्र कपाट औपचारिक रूप से तीर्थयात्रियों के लिए खोले गए, जिससे चार धाम यात्रा सत्र की शुरुआत हो गई। यह धाम हर साल लाखों श्रद्धालुओं का ध्यान आकर्षित करता है, जो यहां भगवान विष्णु के दर्शन करने के लिए आते हैं।
बद्रीनाथ धाम का महत्व
बद्रीनाथ धाम को दूसरा बैकुंठ धाम भी कहा जाता है। धार्मिक मान्यता के मुताबिक, यहां के दर्शन से आत्मा को शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
हर साल लाखों श्रद्धालु इस पवित्र स्थान पर आते हैं, ताकि वे अपनी पूजा-अर्चना और दर्शन के माध्यम से पुण्य लाभ प्राप्त कर सकें। यहां की अखंड ज्योति को देखना एक विशेष पुण्य का काम माना जाता है।
कैसे पड़ा बद्रीनाथ धाम का नाम
बद्रीनाथ धाम का नाम अलग-अलग युगों में विभिन्न रूपों में प्रचलित हुआ है, लेकिन वर्तमान में इसे बद्रीनाथ के नाम से जाना जाता है।
इस नाम के पीछे एक रोचक कथा भी जुड़ी हुई है, जिसमें इस पवित्र स्थल का नामकरण बेर के पेड़ों के कारण हुआ। कहा जाता है कि, यहां बहुतायत में बेर के पेड़ पाए जाते थे, जिनकी उपस्थिति ने इस धाम का नाम बद्रीनाथ रखने की प्रेरणा दी।
नामकरण की कथा
कथा के मुसाबिक, एक बार नारद मुनि भगवान विष्णु के दर्शन के लिए क्षीरसागर गए। वहां उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु के पैर लक्ष्मी माता द्वारा दबाए जा रहे थे, जो उन्हें बहुत आश्चर्यचकित कर गया। नारद मुनि ने जब इस संदर्भ में भगवान विष्णु से पूछा, तो भगवान विष्णु ने स्वयं को दोषी ठहराया और तपस्या के लिए हिमालय चले गए।
हिमालय में तपस्या करते हुए जब भगवान विष्णु योग मुद्रा में लीन थे, उन पर बहुत अधिक हिमपात होने लगा और वे पूरी तरह बर्फ से ढक गए।
इस पर लक्ष्मी माता बहुत दुखी हुईं और वे बद्री के पेड़ के रूप में खड़ी हो गईं ताकि भगवान विष्णु की रक्षा कर सकें। इस प्रकार, बर्फ और बारिश का असर अब केवल बद्री के पेड़ पर होने लगा, और लक्ष्मी माता ने भगवान की रक्षा की।
कई वर्षों की तपस्या के बाद जब भगवान विष्णु की आंखें खुली, तो उन्होंने देखा कि लक्ष्मी माता बर्फ में ढकी हुई हैं। भगवान विष्णु ने कहा, "हे देवी! आपने मेरी तरह ही तप किया है।
इस धाम पर अब आपकी भी पूजा की जाएगी। और क्योंकि, आपने बेर के पेड़ यानी बद्री के रूप में मेरी रक्षा की, इसलिए इस धाम का नाम 'बद्रीनाथ' रखा जाएगा।" इस तरह बद्रीनाथ धाम का नामकरण हुआ, जो आज भी श्रद्धालुओं के बीच अत्यधिक सम्मान और श्रद्धा का विषय है।
बद्रीनाथ धाम के कपाट की प्रक्रिया
धार्मिक मान्यता के मुताबिक, बद्रीनाथ धाम के कपाट न केवल शीतकाल में बंद होते हैं, बल्कि ग्रीष्मकाल के दौरान भी इन कपाटों को रोज खोला और बंद किया जाता है। यह प्रक्रिया धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार बड़े ध्यान से की जाती है, जिसमें खास मुहूर्त का पालन किया जाता है।
कपाट बंद करते समय तीन ताले लगाए जाते हैं, जिनमें से एक ताला मंदिर समिति (BKTC) का, एक ताला मेहता थोक का और एक ताला भंडारी थोक का होता है।
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कपाट खोलने की धार्मिक प्रक्रिया
धार्मिक मान्यता के मुताबिक, हर साल मई में बद्रीनाथ धाम के कपाट श्रद्धालुओं के लिए खोले जाते हैं। यह प्रक्रिया धार्मिक पद्धतियों के मुताबिक की जाती है, जिसमें सबसे पहले भगवान श्री गणेश और भगवान श्री बद्री विशाल का आह्वान किया जाता है।
इसके बाद, टिहरी महाराजा के प्रतिनिधि द्वारा पहला ताला खोला जाता है। फिर मेहता थोक और भंडारी थोक के प्रतिनिधि इसे खोलते हैं। इसके बाद गर्भगृह का ताला भी खोला जाता है।
इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद श्रद्धालु भगवान बद्री विशाल की अखंड ज्योति के दर्शन का पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।
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ताला खोलने का मुहूर्त और परंपराएं
मान्यता के मुताबिक, इस प्रक्रिया में हर रोज मुहूर्त का ध्यान रखा जाता है। कपाट खोलने से पहले जिन चाबियों की पूजा होती है, उन चाबियों से गर्भगृह का ताला खोला जाता है।
यह प्रक्रिया पूरे ग्रीष्मकाल के दौरान रोज होती है, ताकि श्रद्धालु हर दिन के मुहूर्त में भगवान के दर्शन कर सकें।
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