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भीष्म अष्टमी हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण तिथि मानी जाती है, जो माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाई जाती है। यह दिन विशेष रूप से पितरों के श्राद्ध और तर्पण के लिए समर्पित होता है, क्योंकि को पितामह भीष्म की पुण्यतिथि के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक कथा के मुताबिक, महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह ने अपनी शरशय्या पर रहते हुए सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार किया और माघ माह की अष्टमी तिथि को ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे। इसलिए यह दिन उनके मोक्ष प्राप्ति के दिन के रूप में भी याद किया जाता है। इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए विशेष पूजा, तर्पण और श्राद्ध कर्म किए जाते हैं।
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इस दिन का महत्व
इस दिन का धार्मिक महत्व बहुत ज्यादा है, क्योंकि इसे पितृ पूजन और श्राद्ध का दिन माना जाता है। मान्यता है कि, इस दिन अपने पितरों का तर्पण और श्राद्ध करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और परिवार को आशीर्वाद प्राप्त होता है। पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, पिंडदान और जल अर्पण जैसी क्रियाएं की जाती हैं।
इस दिन किए गए श्राद्ध कर्म से परिवार के सभी पितरों को तृप्ति मिलती है और उनका आशीर्वाद हमेशा परिवार पर बना रहता है। पितृ दोष को समाप्त करने के लिए भीष्म अष्टमी को विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है।
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इस दिन पूजा कैसे करें
भीष्म अष्टमी के दिन सबसे पहले अपने पितरों का ध्यान करते हुए श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करना चाहिए। शास्त्रों के मुताबिक, इस दिन विशेष रूप से जल, तिल, अक्षत और पुष्प अर्पण करना अत्यंत शुभ माना जाता है। इसके अलावा, यदि संभव हो, तो गंगा, यमुना या किसी पवित्र नदी के तट पर जाकर तर्पण करना और ब्राह्मणों को भोजन कराना भी उत्तम फलदायी होता है। इस दिन किसी भी धार्मिक स्थल में पितृ पूजन, तर्पण और श्रद्धा भाव से की गई पूजा का फल कई गुना बढ़ जाता है।
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कब से शुरू हुई और क्यों मनाई जाती है
इस दिन की शुरुआत महाभारत के समय से मानी जाती है, जब पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हुए युद्ध के बाद अपनी शरशय्या पर प्राण त्यागे थे। इस दिन को खास रूप से पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करने और उनका पुण्य तर्पण करने के लिए चुना गया। भीष्म अष्टमी का आयोजन आज भी उसी उद्देश्य के साथ किया जाता है, ताकि पितृदोष से मुक्ति मिल सके और परिवार में सुख, समृद्धि और शांति बनी रहे।
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