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हिंदू धर्म में महाशिवरात्रि का पर्व बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। ये पर्व भगवान शिव और उनकी महिमा को समर्पित है। इस साल महाशिवरात्रि 26 फरवरी 2025 को मनाई जाएगी। इस दिन शिव भक्त रात्रि जागरण, उपवास और पूजा-अर्चना करते हैं। पूरे देश में शिव मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।
भक्त शिवलिंग पर दूध, जल, बेलपत्र और धतूरा चढ़ाकर भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ऐसे में क्या आपको पता है कि, भगवान शिव के मस्तक पर चंद्रमा क्यों विराजमान हैं। चलिए जानते हैं इसके पीछे के दो पौराणिक कथा के बारे में।
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समुद्र मंथन से जुड़ी कथा
शिवपुराण के मुताबिक, चंद्रमा को भगवान शिव के शीश पर स्थान देने के पीछे कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें सबसे प्रमुख कथा समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। माना जाता है कि देवता और असुर जब समुद्र मंथन कर रहे थे, तब उसमें से हलाहल विष निकला, जो पूरे ब्रह्मांड को नष्ट करने की शक्ति रखता था। इस विनाशकारी स्थिति से बचने के लिए सभी देवताओं ने भगवान शिव से सहायता मांगी।
शिवपुराण के मुताबिक, तब भगवान शिव ने समस्त संसार की रक्षा के लिए उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, जिससे उनका शरीर तपने लगा और उन्हें असहनीय जलन महसूस होने लगी। इस स्थिति को देखकर सभी देवता चिंतित हो गए और उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की कि, वे चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण करें।
चंद्रमा को ठंडक और शीतलता का प्रतीक माना जाता है। देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया, जिससे उनके शरीर की जलन शांत हो गई। तो ऐसे में माना जाता है कि, महाशिवरात्रि पर शिवलिंग पर जल और दूध चढ़ाने का महत्व भी इसी से जुड़ा हुआ है, क्योंकि यह भगवान शिव को ठंडक देता है।
श्राप से मुक्ति दिलाने की कथा
शिवपुराण के मुताबिक, भगवान शिव के मस्तक पर चंद्रमा के विराजमान होने की दूसरी पौराणिक कथा प्रजापति दक्ष और चंद्रदेव से जुड़ी हुई है। कथा के मुताबिक, चंद्रदेव का विवाह प्रजापति दक्ष की 27 कन्याओं से हुआ था, जो 27 नक्षत्रों के रूप में जानी जाती हैं। इन सभी पत्नियों में से रोहिणी चंद्रदेव को सबसे अधिक प्रिय थीं।
वे रोहिणी को अधिक समय देते थे, जिससे अन्य पत्नियां नाराज हो गईं और उन्होंने अपने पिता प्रजापति दक्ष से शिकायत की। अपनी बेटियों के कष्ट को देखकर दक्ष ने चंद्रदेव को श्राप दे दिया कि वे क्षय रोग से ग्रसित हो जाएंगे। श्राप के कारण चंद्रदेव की चमक और कलाएं धीरे-धीरे क्षीण होने लगीं। इससे परेशान होकर उन्होंने नारद मुनि से सलाह ली। नारद मुनि ने उन्हें भगवान शिव की आराधना करने की सलाह दी।
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तपस्या से मिला आशीर्वाद
शिवपुराण के मुताबिक, माना जाता है कि, चंद्रदेव ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या की। कई वर्षों तक ध्यान और भक्ति में लीन रहने के बाद, एक दिन पूर्णिमा की रात भगवान शिव प्रकट हुए। चंद्रमा ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलाएं।
भगवान शिव ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अपने मस्तक पर स्थान दिया और कहा कि अब से हर महीने चंद्रमा धीरे-धीरे क्षीण होंगे और फिर पूर्ण होंगे, जिससे उनका अस्तित्व बना रहेगा। इस प्रकार चंद्रमा का आकार घटते और बढ़ते रहते हैं। यही चंद्रमा के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के बदलाव का कारण माना जाता है।
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महाशिवरात्रि पर चंद्रमा का महत्व
शिवपुराण के मुताबिक माना जाता है कि, महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की पूजा करने से मन, शरीर और आत्मा को शांति मिलती है। चंद्रमा को भगवान शिव के मस्तक पर स्थान प्राप्त होने के कारण इस दिन चंद्रमा की उपासना भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करने का भी यही महत्व है कि, यह भगवान शिव को ठंडक प्रदान करता है, जैसे चंद्रमा ने किया था। इसी कारण महाशिवरात्रि की रात को चंद्रमा की रोशनी में शिव पूजन करना विशेष रूप से लाभकारी माना जाता है।
कथा का आध्यात्मिक संदेश
भगवान शिव के मस्तक पर चंद्रमा विराजमान होने का एक गहरा आध्यात्मिक संदेश भी है। शिवपुराण के मुताबिक, चंद्रमा को शांति और ठंडक का प्रतीक माना जाता है, जबकि भगवान शिव को तप, त्याग और संहार का प्रतीक। जब भगवान शिव ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण किया, तो यह इस बात का संकेत था कि जीवन में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। कठोरता और सहनशीलता, तपस्या और शांति, सभी का संतुलन ही जीवन में स्थिरता लाता है।
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